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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १५५॥ ...............06 पचनन्दिपश्चविंशतिका 1 युद्धे तावदलं रथेभतुरगा वीराश्च दृप्ता भृशं मन्त्र-शोर्यमासिश्च तावदतुलः कार्यस्य संसाधकः। राज्ञोऽपि क्षुधितोऽपि निर्दयमना यावजिधित्सुर्यमः क्रुद्धो धावति नैव सन्मुखमितो यत्नोविधियोबुधैः।। जबतक भूखा तथा निर्दयी और समस्तजीवोंका विध्वंसकरनेवाला तथा क्रोधी यमराज सामने नहीं आता तभीतक लड़ाई में राजाके रथ, हस्ती, घोड़ा, तथा अत्यन्त गर्व करनेवाले सुभट, तथा मन्त्र, वीरता और अनुपमतलवार, आदि काममें आते हैं किन्तु जब यमराज सामने पड़ जाता है अर्थात् मरजाते हैं उस समय उपर्युक्त कोई भी चीज काममें नहीं आती इसलिये बुद्धिमानपुरुषोंको जिसप्रकार बने उसप्रकारसे इसकालके सर्वथा नाशकेलियेही यत्न करना चाहिये ॥ ४१ ।। राजापि क्षणमात्रतो विधिवशाद्रङ्कायते निश्चितं सर्वव्याधिविवर्जितोऽपि तरुणोऽप्याशु क्षयं गच्छति । अन्यः किं किल सारतामुपगते श्रीजीविते द्वे तयोः संसारे स्थितिरीदृशीति विदुषा कान्यत्र कार्यों मदः ।। अर्थः--अपने पूर्वोपार्जितकर्मके वशसे राजाभी क्षणभरमें निश्चयसे निधन होजाता है तथा समस्त रोगोंसे रहितभी जवानमनुष्य देखते २ नष्ट होजाता है इसलिये समस्तपदार्थोमे सारभूत जीवन तथा धन की जब संसारमें ऐसी स्थिति है तब और पदार्थों की क्या वात ? अर्थात् वेतो अवश्थही विनाशीक है अतः विद्वानोंको किसीपदार्थमें अहंकार नहीं करना चाहिये ॥ ४२ ॥ हन्तिव्योम स मुष्टिनात्र सरितं शुष्क तरत्याकुलस्तृष्णातोऽथ मरीचिकाः पिबति च प्रायः प्रमत्तो भवन् । प्रोत्तनाचलचूलिकागतमरुत्मतत्पदीपोपमैर्यत्सम्पत्सुतकामिनीप्रभृतिभिः कुर्यान्मदं मानवः ॥ १३ ॥ अर्थः--जो मनुष्य अत्यंतऊंची जो पहाड़की चोटी उसपर चलतीहुई जो पवन उससे झोरे खाते हुवे दीपकके समान चंचल ऐसी संपदा तथा पुत्र स्त्री आदिकमें अभिमान करता है वह मनुष्य उन्मादी होकर आकाश +++++++... For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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