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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ...............०००-००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पद्मनान्दपञ्चाशातिका । जन्मान्तरं प्रविशतोऽस्य तथा व्रतेन दानेन चार्जितशुभं सुखहेतुरेकम् ॥ २६ ॥ अर्थः--जो मनुष्य अपने घरसे अच्छी तरह पाथेय ( टोसा) लेकर दूसरे गांवको जाता है वह मनुप्य जिसप्रकार सुखी रहता है उसही प्रकार जो मनुष्य परलोकको गमन करता है उसमनुष्यके व्रत तथा दानसे पैदा किया हुवा एक पुण्यही सुखका कारण है इसलिये जो मनुष्य परलोकमें सुखके अभिलाषी हैं उन को व्रतोंको धारण कर तथा दान देकर खूब पुण्यका संचय करना चाहिये ॥ २६ ॥ और भी आचार्य दानकी महिमाका वर्णन करते हैं। यत्नः कृतोऽपि मदनार्थयशोनिमित्तं देवादिह व्रजति निष्फलतां कदाचित् । . संकल्पमात्रमपि दानविधी तु पुण्यं कुर्यादसत्यपि हि पात्रजने प्रमोदात् ॥ २७॥ अर्थः--संसारमें कामभोगकेलिये तथा धनकेलिये अथवा यशकेलिये किया हुवा प्रयत्न यद्यपि दैवयोगसे किसी समय निष्फल होजाता है परन्तु उत्तम आदि पात्रोंके नहीं होते भी हर्ष पूर्वक दानदेवेंगे | ऐसा दानका सकल्प ही पुण्यका करने वाला होता है इसलिये ऐसे उत्तमदानका मनुष्यों को अवश्य ध्यान रखना चाहिये ॥ २० ॥ सद्मागते किल विपक्षजनेऽपि सन्तः कुर्वन्ति मानमतुलं वचनाशनायैः । यत्तत्र चारुगुणरत्ननिधानभूते पात्रे मुदा महति किं क्रियते न शिष्टेः ॥ २८॥ अर्थः--वैरी भी यदि अपने घर आवे तो सज्जन मनुष्य मधुर २ वचनोंसे तथा भोजन आदिसे उसका वडाभारी सन्मान करते हैं तो जो उत्तम सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयके धारी हैं तथा पूज्य हैं ऐसे पात्रमें सज्जन हर्ष पूर्वक क्या नहीं करेंगे अर्थात् उसको अवश्यही नवधा भक्तिसे आहार देवेंगे ॥ २८ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥१ २३१ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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