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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandie ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܪ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपश्चविंशतिका । अपेक्षा भिक्षाही उत्तम है क्योंकि भिक्षामें मनुष्यको किसीप्रकारका आरंभ आदि नहीं करना पड़ता इसलिये चित्तको किसीप्रकारका संक्लेश भी नहीं होता ॥ २३ ॥ पूजा न चेजिनपतेः पदपङ्कजेषु दानं न संयतजनाय च भक्तिपूर्वम् । नो दीयते किमु ततः सदवस्थतायाः शीघ्र जलाञ्जलिरगाधजले प्रविश्य ॥२४॥ अर्थः-जिस गृहस्थाश्रममें जिनन्द्रभगवानके चरणकमलों की पूजा नहीं है तथा भक्तिभावसे संयमी जनों के लिये दान भी नहीं दिया जाता आचार्य कहते हैं कि अत्यंत गहरेजलमें प्रवेश करके उस गृहस्थाश्रमके लिये जलकी अंजलि देदेनी चाहिये । भावार्थ:--चिना दानपूजनके गृहस्थाश्रम किसी कामका नहीं इसलिये गृहस्थाश्रममें रहकर भव्य जीवों को अवश्य दान देना चाहिये ॥ २४ ॥ और भी आचार्य उपदेश देते हैं । कार्य तपः परमिह भ्रमता भवाब्धी मानुष्यजन्मनि चिरादतिदुःखलब्धे । सम्पद्यते न तदणुव्रतिनापि भाव्यं जायेत चेदहरहः किल पात्रदानम् ॥ २५॥ अर्थः-चिरकालसे इससंसाररूपीसमुद्र में भ्रमण करते हुवे प्राणियों को कष्टसे इसमनुष्यभवकी प्राप्ति हुई है इसलिये इसमनुष्यजन्ममें अवश्य तप करना चाहिये यदि तप न होसके तो अणुबत अवश्य ही धारण करना चाहिये जिससे प्रतिदिन निश्चयसे उत्तम आदि पात्रोंको दान हुवा करै ॥ २५ ॥ जिसप्रकार वटोही को टोसा सुखदेता है उसहीप्रकार परलोकको जानेवाले मनुष्यको दान सुखदेता है। प्रामान्तरं ब्रजति यः स्वगृहाद् गृहीत्वा पाथेयमुन्नततरं स सुखी मनुष्यः । ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००0000000000000 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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