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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । इस लिये आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे भाइयों व्यर्थ नीच कल्पनाओं करके क्या ? केवल धर्महीका सेवन करो जिससे तुम्हारे सर्वकार्य सिद्ध हो जावें ॥ १९५ ॥ और भी आचार्य धर्मकी महिमाका वर्णन करते हैं। आस्तामस्यविधानतः पथि गतिधर्मस्य वार्तापि यः श्रुत्वा चेतसि धार्यते त्रिभुवने तेषां न काः सम्पदः। दूरे सजलपानमजनसुखं शीतैः सेरामारुतैःप्राप्तं पद्मरजः सुगन्धिभिरपि श्रान्तं जनं मोदयेत्॥१९६।। अर्थः-धर्मके मार्गमें विधि पूर्वक गमन करना तो दूररहो किंतु जो धर्मकी बातों के प्रेमी मनुष्य केवल उसको सुनकर धारण करलेते हैं उनके भी तीनलोकमें समस्त संपदाओंकी प्राप्ति होती है जिसप्रकार शीतल जलके पीनेका सुख तथा स्नान करनेका सुखतो दूरही रहो अर्थात् उससे तो शांति होती ही है किंतु जो तालावकी वायु कमलोंकी रजकर सुगन्धित हो रही है तथा शीतल है उससे उत्पन्न हुवा जो सुख वह भी थके हुवे मनुष्य को शान्त करदेता है इसलिये भव्य जीवों को सदा धर्मका ही आश्रय लेना चाहिये १९६ अच आचार्य अंत मंगलमें अपने गुरूका स्मरण करते हैं । वसंततिलका। यत्पादपङ्कजरजोभिरपि प्रणामालग्नैः शिरस्यमलवोधकलावतारः । भव्यात्मनां भवति तत्क्षणमेव मोक्षं स श्रीगुरुर्दिशतु मे मुनि “वीरनन्दी” ॥ १९७॥ अर्थः-जिन वीरनंदी गुरुके प्रणाम पूर्वक मस्तकमें लगाये हुवे चरणकमलों के रजोसे ही भव्य | जीवों को वातकी वातमें निर्मल ज्ञानकी प्राप्ति होती है वे श्री वीरनन्दी मुनि मेरे गुरु मुझे मोक्ष देवो ॥ भावार्थः-उत्तम गुरुही मोक्ष देसक्ते हैं इसीलिये ग्रन्थकारने वीरनन्दी मुनिसे ही मोक्षकी याचनाकी है ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ १. For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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