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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀. पचनन्दिपवाविंशतिका । और भी धर्मकी महिमा को कहते हैं । स्रग्धरा उह्यन्ते ते शिरोभिःसुरपतिभिरपिस्तूयमानाः सुरोधैर्गीयन्ते किन्नरीभिर्ललितपदलसद्गीतिभिर्भक्तिरागात् । भ्रम्यन्ते च तेषां दिशिदिशिविशदा-कीर्तयःकानवास्यालक्ष्मीस्तेषु प्रशस्ता विदधति मनुजाये सदाधर्मकेमम अर्थः-जो मनुष्य सदा एक धर्मको ही धारण करते हैं अर्थात् जो धर्मात्मा हैं उनको इन्द्र भी मस्तकपर धारण करते हैं तथा बड़े २ देव ठनकी स्तुति करते हैं और उनधर्मात्मा पुरुषोंकेगुण बड़ी शांतिसे किन्नरीजातिकोदेवी गाती है तथा उनधर्मात्मापुरुषों की कीर्ति समस्तदिशाओंमें फैलजाती है और उनधर्मात्मापुरुषोंको उत्तमसेउत्तम लक्ष्मीकी भी प्राप्ति होती है इसलिये भव्यजीवोंको ऐसा महिमायुक्तधर्म अवश्य धारण करने योग्य है ॥ आचार्य और भी धर्मकीमहिमा दिखाते हैं । शार्दूल विक्रीड़ित । धर्मः श्रीवशमन्त्र एप परमो धर्मश्चकल्पद्रुमो धर्मः कामगवीप्सितप्रदमणिधर्मः परं देवतम् । धर्मः सौख्यपरं परामृतनदीसम्भूतिसत्पर्वतो धर्मो भ्रातरुपास्यतां किमपरैः क्षुद्रेरसत्कल्पनैः ॥१९५॥ अर्थः-समस्त प्रकारकी लक्ष्मी को देनेवाला होनेके कारण यह धर्म लक्षमीके वशकरने को मंत्रके समान है तथा यह धर्म वांछित चीजोंका देनेवाला कल्पवृक्ष है और धर्मही कामधेनु है तथा धर्मही समस्त चिन्ताओं को पूर्ण करनेवाला चिंतामणि रत्न है और धर्मही उत्कृष्ट देवता है और धर्मही उत्कृष्ट सुखोंकी राशिरूपी जो अमृत नदी उसके उत्पन्न कराने में पर्वतके समान है अर्थात् जिसप्रकार हिमालय आदि पहाड़ोंसे नदियां उत्पन्न होती हैं उसही प्रकार धर्मसे भी सुखों की परंपरा रूप नदी की उत्पति होती है (सुख मिलता है) ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ १०९॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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