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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥८ ॥ पचनन्दिपश्चविंशतिका । ज्ञानी पुरुष इसप्रकारका भी विचार करता है। बसन्ततिलका। यजायते किमपि कर्मवशादसातं सातं च यत्तदनुयायि विकल्पजालम् । जातं मनागपि न यत्र पदं तदेव देवेन्द्रवन्दितमहं शरणं गतोऽस्मि ॥ १६१ ॥ अर्थः-जिस मोक्ष पदमें न तो कर्मके वशसे साता होती है और न कर्मके वशसे असाता होती है तथा न उन साता तथा असाताके अभाव जहांपर किसी प्रकारके विकल्पही उठते हैं और जिस पदकी बड़े२ इंद्रादिक भी स्तुति करते हैं ऐसे मोक्षपदके शरणको मैं प्राप्त होना चाहता हूं॥ १६१ ॥ __ आगे आचार्य और भी ज्ञानी के विचारको दिखाते हैं । शार्दूल विक्रीड़ित । धिकान्तास्तनमण्डलं धिगमलपालेयरोचिःकरान् धिकर्पूरविमिश्रचंदनरसं धिक् ताञ्जलादीनपि । यत्प्राप्तं न कदाचिदत्र तदिदं संसारसंतापहृत् लमं चेदिति शीतलं गुरुवचो दिव्यामृतं मे हृदि ॥१६॥ अर्थः-संसारमें यह बात भलीभांति प्रचलित है तथा अज्ञानी मनुष्य इसबातको मानते भी हैं कि यदि किसी प्रकार का संताप होजाये तो उस संतप्त प्राणीको स्त्रीके स्तनों के स्पर्शसे तथा चन्द्रमाकी किरण आदि के सेवनेसे संतापको दूर करदेना चाहिये परंतु ज्ञानी मनुष्य इस चातको सर्वथा नहीं मानता तथा इससे विपरीत ही विचार करता है अर्थात् वह कहता है कि जिसकी कभी भी प्राप्ति नहीं हुई है तथा जो सब संसार के दुःखोंको दूरकरने वाला है और जो अत्यंत शीतल है एसा यदि गुरुओंका बचन मेरे मन में मौजूद है तो जिनको मनुष्य शीतल करनेवाले कहते हैं एसे स्त्रीके कुचोको धिकारहो तथा चंद्रमाकी शीतल किरणों को धिकार हो तथा कपूर मिले हुवे चदनके रसको धिकारहो तथा जल आदिको भी धिक्कार हो ॥ H॥८९H ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 000000000000000000000000.40440666086667 &000000000 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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