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________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥4 ॥ 0000 ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀ܙܕ܀ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चशितिका । यन्नान्तर्न वहि स्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्म पुमानैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम् । कर्मस्पर्शशरीरगंधगणनाव्याहारवर्णोज्झितं स्वच्छं ज्ञानदृगेकमूर्तितदहं ज्योतिःपरं नापरम् ॥१५९॥ अर्थः-आत्मज्ञानी पुरुष इसप्रकार का विचार करता है कि न मैं भीतर हूं न वाहिर हूं न किसी दिशा में हूं न मोटाई न पतला हूं न पुरुष हूं न स्त्री हूं न नपुंसक हूं नभारी हूँ न हलका हं और न मेरा कर्म है न स्पर्श है न शरीर है न गंध है न संख्या है न शब्द है न वर्ण है तथा जो अत्यंत स्वच्छ तथा ज्ञानदर्शन मयी मूर्तिकी धारक ज्योति है वही मै हूं और उससे भिन्न कोई नहीं हूं। भावार्थ:-ज्ञानी पुरुष इस बातका विचार करता है कि स्थूल सुक्ष्मादिक तथा स्त्री पुरुष नपुंसकादिक तथा स्पर्श रस गन्धआदिक सब पुद्गलके विकार हैं तथा मैं उनसे सर्वथा भिन्नहूं किन्तु मेरी एक ज्ञान दर्शन मयी ही मूर्ति है ॥ १५९ ।। और भी आचार्य शुद्धात्माका वर्णन करते हैं । जानाति स्वयमेव यद्धि मनसश्चिद्रूपमानंदवत्प्रोच्छिन्ने यदनाद्यमंदमसकृन्मोहान्धकारे हठात् । सूर्याचन्द्रमसावतीत्य यदहो विश्वप्रकाशात्मकं तज्जीयात्सहज सुनिष्कलमहं शब्दाभिधेयं महः ॥१६०॥ अर्थः-आनंद के धारी जिस चैतन्यरूपी तेजको अनादिकालसे विद्यमान तथा गाढ़ मोहरूपी अंधकार को तपके द्वारा सर्वथा नाशकर केवल ज्ञानकेधारी पुरुष अपने आप जानलेते हैं तथा जो चैतन्यरूपी तेज सूर्य चन्द्रमाके तेजको फीका करने वाला है तथा समस्त पदार्थोंका भलीभांति प्रकाश करने वाला है और जिसका मैं (अहम् ) इस शब्द से अनुभव होता है तथा जो स्वाभाविक है ऐसा वह चैतन्यरूपी तेज सदा काल जयवन्त रहो ॥ ११.॥ ...................0000000000000000000000000000000000 ॥८८॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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