SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 221 विप्र एक तिण वार वचन इसै बतलायो हो रिष झोली हाथ मेल कर काम हमारो कहीय उण ईण कीयो विप्र पात श्राध दिहा यो, बेहराय भोजन खीर खांड लायो सीक गुरु ले अगल गुरुकहीयो बार लागी घणी सीख कहीयो कारण सकल ॥2॥ सीष मुख ब्रितान्त सुणि रिषि सहैरं सुंरीसाए पीयण साप करे प्रगट मे हेल कुँ अर रे मेलाए पीयण सास पीयं ते कुँ अर चेतना न काई नहीं सास बेशास सांग हुए राय चिंताई हाहाकार सै हैर कुँ अर मोत हुई सुनी दागदी अणमिल सब सनी परपंच कर पोरवछंडै मारग रहै ऊ भोसुनो ॥3॥ सीष मुख वितंत सुणी भरम राजा भलाणौ कवण नाम गुरं कठे थेसो वाण ठिकाणी उठो डांड गुर उठे कुँ अर ले पारो आय वांदे की अरज शांह मो कारज सारो सीष कहै विप्र राज रै ईधकारी बैगुर अन्तम जे करे कुँवर ने जीवते पोह पु बै तिहाने प्रणाम ।।4।। नृप हर वैगुर विप्रां कुँवरजी 3 को कारणे उषध मन्त्र उपचार विप्रे बोह कीआ विचारण पिण गुण न होई ली गार रिष कहीयो सुण राजा कुँ जीवाऊ कुँ अर कऊँ सो करसो काजा रिष कहे राज ईम अनुष्ठै कहो राज सो म्हे कहां नृप या पुत्र काजनृका वचन मोत अधवी सौ हमरां ।।5।। 7. केलड़ी मंदिर ग्रंथागार का गुटका इस ग्रंथागार में ओसवंश की उत्पत्ति' ग्रंथ क्रमांक 1275 में दी है। इससे 'संवत एकै उगणीसे' में ओसवंश के उद्भव की पुष्टि होती है। अभयग्रंथालय के गुटके 7765 के 13 पद इसके समान है। पांच कवित्तों में परमार उपल के भगवान महावीर के निर्वाण के 52 वर्ष पश्चात् रत्नप्रभसूरिका आचार्य पट्ट पर आसीन होना, 18 वर्ष पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाण 70 में जैनमत अंगीकार करना और ओसवंश की स्थापना होना वर्णित है। उस समय ओसवाल के 18 गोत्र बने। उस समय एक लाख चौरासी हजार राजपुत्रों को प्रतिबोध दिया और ओसवाल जाति की स्थापना की। ‘एकै उगणीस' में श्रावण के शुक्ल पक्ष के रविवार अष्टमी को ओसवंश की स्थापना हुई। सभी राजपूतों को इसमें ओसवाल होना वर्णित है।' 1. इतिहास की अमरबेल, ओसवाल, प्रथम खण्ड, पृ 98-99 For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy