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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सेठिया प्रथमाला विध्वंस कर देता है, वैसे ही अहंकार प्राणियों के त्रिवर्ग (धर्म अर्थ और काम) का विध्वंस कर देता है ॥ ५१ ॥ मानो दुःख निधिभवेद्भवभृतां मानं विपत्संश्रिता, मानेनैव भवन्ति मानरहिता मानाय देया क्षतिः । मानान्नास्ति परं यशोविहननं मानस्य दुःखं वशे माने मा कुरु गौरवं हतसुखे हे मान ! दूरं व्रज ॥ ५२॥ अभिमान दुःख का निधान है । विपत्तियाँ अभिमान के आश्रि त हैं। अभिमान से सम्मान का क्षय होता है, अभिमान क्षय करने योग्य हैं । अभिमान से अधिक कीर्त्ति का नाश करनेवाला दूसरा कोई नहीं है । मान के अधीन दुःख रहता है । सुखका नाश करनेवाले अहंकार में अपना गौरव मत समझो। हे अहंकार तू दूर रह ||५२|| २८) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माया से हानिवन्ध्या या कुशलोद्गमेऽस्ति सततं सत्यार्क सन्ध्या च या, माला या कुगतिस्त्रियाः किल महामोहे भशालास्ति या । शान्त्यम्भोजवने हिमं कुयशसोया राजधानी मता, मायां तां परिमुञ्च दूरतरतो या दुःखदा सर्वदा ॥ ५३ ॥ जो माया पुण्य उत्पन्न करने में वन्ध्यास्त्री के समान है, अर्थात् कपट करने से कभी पुग्य उत्पन्न नहीं होता, केवल पाप ही उत्पन्न होता है। जो माया सत्यरूप सूर्य के छिपने पर होनेवाली सन्ध्या के समान है । जो माया कुगति रूप स्त्री की वरमाला For Private And Personal Use Only
SR No.020509
Book TitleNiti Dipak Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Jethmal Sethiya
PublisherBhairodan Jethmal Sethiya
Publication Year1925
Total Pages56
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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