SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीतिदीपिका (२७) सजन पुरुष विनय गुण और उत्तम कर्त्तव्य धारण कर इस अहंकार रूपी पर्वत से सदा दूर रहें ॥४६॥ भञ्जनीतिसुवीथिकां दृशमालानं विनिघ्नन्मदा च्छुभ्रां सन्मतिनाडिकां विघटयन्दुर्वाग्रजः संकिरन् । नित्यं स्वागमवज्रमप्यगणयन्स्वैरं भ्रमन्भूतले, नानर्थ जनयत्यहो किमु जनो नागोमदान्धो यथा ॥५०॥ अभिमानरूप मदोन्मत्त हायी शान्तिरूप दृढ अालान-बन्धन स्थान को तोड़कर नीतिरूप मार्ग का भङ्ग करता हुआ. सम्यग्ज्ञानरूप सांकल को तोड़कर दुर्वचनरूप धूल को उड़ाता हुआ अपने मार्ग में रुकावट डालनेवाले वज्र की परवाह न कर सदा पृथ्वी पर भ्रमण करता हुआ कौन २ से अनर्थ उत्पन्न नहीं करता है ॥५०॥ औचित्यं विनिहन्ति मेघरचनां तीव्रो नभस्वानिव, प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणान्परप्राणिनाम् । कीर्ति नागपतियथा कमलिनीमुन्मूलयत्यासा, मानो नीच इवोपकारमनिशं हन्ति त्रिवर्ग नृणाम् ॥५॥ जैसे प्रचण्ड पवन मेव को छिन्न भिन्न कर देता है, वैसे ही अभिमान उचित आचरण को नष्ट कर देता है। जैसे सर्प जीवों के प्राणों को हर लेता है, वैसे ही अहंकार विनय को हर लेता है । जैसे हाथी कमलिनी को मूल सं उग्वाड़ देता है, वैस ही गर्व तत्काल कीर्ति को जड़ से उखाड़ देता है, जैसे नीच पुरुष उपकार का For Private And Personal Use Only
SR No.020509
Book TitleNiti Dipak Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Jethmal Sethiya
PublisherBhairodan Jethmal Sethiya
Publication Year1925
Total Pages56
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy