SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७६ ) आने लगे और जब निद्रा से जागे तो भी यह ख्याल था कि कब प्रातःकाल हो और मैं जिनेश्वरदेव जी महाराज की उपासना करूं । जब प्रातःकाल हुआ राजा जी निद्रा से विमुक्त हुए तो पुरीपोत्सर्ग से नित्त होकर और स्नानादि करके अष्टद्रव्य लेकर जिनेश्वरदेव की पूजा भक्ति में प्रवृत्त हुए। सज्जन पुरुषो! इस दृष्टान्त के सुनने से आप को अच्छी तरह प्रतीत होगया होगा कि मूर्तिपूजा से कोई भी मत खाली नहीं है। राजा जिज्ञासु की तरह आप को आत्मा के कल्याण करने वाली जिनमूर्ति का पूजन करना चाहिए। ___ पाठक गणो ! अब मैं अपने लेख को समाप्त करता हूं क्योंकि बुद्धिमानों को तो इतना ही कहना बहुत है, और साथ ही प्रार्थना करता हूं कि मेरा यह लेख किसी महाशय को न रुचे वा इस से किंचित् अप्रसन्नता हो, तो मैं उनसे क्षमा चाहता हूं, यथोक्तंच खामेमि सब जीवे सब्वे जीवा खमंतु मे मित्तीमे सव्व भएसु वेरं मझ न केणइ ।। ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः !!! इति श्रीमद्विजयानन्दसूविर्याणां शिष्य श्रीमन्महोपाध्याय श्रीलक्ष्मीविजयानां शिष्य श्रीमद्विजयकमलसूरीश्वराणां शिष्यमुनिलब्धिविजयेन विरचितमिदं मूर्तिमंडन नाम पुस्तकं समाप्तिमगमत् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy