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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७५ ) हो जाते हैं, कि उन्हों ने ......................ऐसे २ काम किए थे, इसलिए ऐसी मूर्तियों की पूजा कदापि न करनी चाहिए, पूजा के लिए शान्त दान्त निर्विकार मूर्ति होनी चाहिए। अब हम नीचे एक श्लोक लिखते हैं बुद्धिमान इस श्लोक से सर्व परिणाम निकाल सक्ते हैं। यथा "स्त्रीसंगः काममाचष्टे द्वेषं चायुधसंग्रहः। व्यामोहं चाक्षसूत्रादि रशौचञ्च कमण्डलुः" । अर्थ इसका यह है-कि स्त्री की जो सङ्गति है सो काम का चिन्ह है और जो शस्त्र हैं सो द्वेषका चिन्ह हैं, और जो जपमाला है सो व्यमोह का चिन्ह है, और जो कमण्डलु है सो अपवित्रता का चिन्ह है, इसलिए मूर्ति शान्त दान्त निर्विकार होनी चाहिए, और ऐसी ही स्वीकार करने योग्य है । ऐसी अच्छी बातको सुनकर और निरुत्तर होकर सब चुप होगए। मन्त्री राजा की तरफ देखकर बोला, कि महाराज ! अबतो आप को अच्छी तरह से मालूम होगया होगा कि मूर्तिपूजा से कोई मत खाली नहीं । राजा साहिब ने कहा कि हे मतिमन् ! मन्त्रिन् ! यह बात सर्वदैव सत्य है, मुझको अच्छी तरह से निश्चय होगया है कि व्यर्थ ही दूसरे मन्त्री ने मेरा ख्याल बदला दिया था, परन्तु अब यह ख्याल 'कि मूर्ति हमें कुच्छ लाभ नहीं दे सक्ती' सत्य नहीं है । मैं आपको हृदय से धन्यवाद देता हूं कि आप सन्मार्ग से भूले हुए मुझको अच्छे मार्ग पर लाए हैं, समय बहुत व्यतीत होगया है इसलिए सभामण्डल को आज्ञा है कि सब आदमी अपने २ घरों को जावें और सभा का विसर्जन किया जाए। रात्रि को जब राजा जी सोगए तो निद्रा में मूर्ति के ही स्वप्न For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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