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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कराने के लिए नहीं चढ़ाते, प्रत्युत अपनी भलाई और लाभ के वास्ते तैय्यार करते हैं और ईश्वर की मूर्ति के आगे रखके केवल यह प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन् ! जिस तरह आपने इनका त्याग किया है मुझको भी इनसे छुड़ाकर आप मुक्ति का दान देवें। आर्य-क्यों जी ! आपका तो यह कहना है कि ईश्वर कुछ नहीं कर सक्ता और न कुच्छ देसक्ता हैं तो फिर यह प्रार्थना करनी कि हे ईश्वर ! हमको मुक्ति दे, हमारे दुःख दूरकर इत्यादि २ व्यर्थ है। _मन्त्री-महाशय जी ! ईश्वर परमात्मा तो वस्तुतः वीतराग है प्रशंसा करने से प्रसन्न और निन्दा करने से क्रोधित नहीं होता, न किसी को कुछ देता है, न किसी से कुछ लेता है, प्रत्युत यह तो केवल अपने भावही का फल है। प्रत्यक्ष सिद्ध है कि बुरी भावना से हमारी आत्मा मलीन होजाती है, और शुभ भावना से हमारे अशुभ कम्मों का नाश होता है, और क्योंकि ईश्वर का प्रशंसा करने या ध्यान करने से हमारे हृदय में शुद्ध परिणाम आजाता है, और उनका हमें अच्छा फल मिलता है, इसवास्ते जानना चाहिये कि इंश्वर ने ही हमें यह फल दिया है, क्योंकि ईश्वरनिमित्त होने से ही हमारा भाव अच्छा होता है जिसके कारण से हमें श्रेष्ठ फल मिलता है। अब प्रत्यक्ष सिद्ध है कि यह श्रेष्ठ फल ईश्वर के निमित्त होने के कारण से हमकों मिला न कि ऐसे इस तरह कहा जासक्ता है कि यह फल ईश्वर ने हमको दिया है, परन्तु तुम्हारे ईश्वर की तरह 'कि परमात्मा ही सब कुच्छ देता है' कदापि नहीं माना जासक्ता । और न ही हम ऐसा मान सक्ते हैं क्योंकि ईश्वर तो वीतराग है उसे लेने For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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