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* श्रीवीतरागायनमः
* मूर्ति मण्डन *
रागद्वेषपरित्यक्ता विज्ञाता विश्ववस्तुनः सेव्यः सुधाशनेशानां गिरीशो ध्यायते मया ॥१॥ जिनवर! तव मूर्ति ये न पश्यन्ति मूढाः कुमतिमतकुभूतैः पीड़िताः पुण्यहीनाः ? सकल सुकृतकृत्यं नैव मोक्षाय तेषां । सुनिविड़तृणराशि श्वामिसंगाद्यथैव ॥२॥ सूरि श्रीविजयानन्दं तं नमामि निरन्तरम् । यस्याभूवं प्रसादेन बालोऽपि मुखरीतरः ॥३॥ प्रणम्य सदगुरुं भक्त्या सूरि श्रीकमलाव्हयं ? क्रियते मूर्तिपूजाया मण्डनं दुःख खण्डनम् ॥४॥
इस संसार में जितने मतानुयायी पुरुष हैं वे सब कहते हैं कि ईश्वर परमात्मा का ध्यान इस असार संसार से पार करने
परन्तु इस बात का विचार नहीं करते कि निराकार का ध्यान कैसे होसक्ता है, क्योंकि जिसका कोई आकार ही नहीं है उसका कोई भी मनुष्यमात्र अपने हृदय में ध्यान नहीं कर सक्ता, यथा किसी पुरुष को कहा जाए कि सीतलदास
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