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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५७ ) सर्वज्ञनारायण और कुल्लूकभट्ट को भी यही मत स्वीकृत है । इसलिये इन प्रमाणों से देवताओं की पूजा करने से मूर्तिपूजा सिद्ध है। आर्य-नहीं जी नहीं, हमारे धर्मशास्त्रों में तो देवताओं का अर्थ विद्वान लिया गया है इस कारण से आपका कथन युक्तियुक्त नहीं है। मन्त्री-पहाशय जी आपको तनक ध्यान देना चाहिए कि यदि यहां देवताओं से विद्वान का अर्थ सिद्ध होता है, तो मातः काल में ही देवताओं का पूजन करना चाहिए. ऐसा क्यों लिखा है। और यदि कथञ्चित् इस बात को स्वीकार भी करलें कि देवता का अर्थ यहां विद्वान ही है, तो फिर भी आप जड़पूजा से पृथक किसी प्रकार नहीं हो सक्ते हैं। क्योंकि यदि आप किसी विद्वान की पूजा करेंगे तो आत्मा को निराकार होने के कारण इस विद्वान के शरीर की ही पूजा करेंगे, परन्तु शरीर जड़ है, इसलिए वह भी जड़ही की पूजा हुई। यदि आप कहेंगे कि शरीर में चैतन्य आत्मा के होते हुए चैतन्य शरीर के पूजने से हम जड़पूजक नहीं हो सक्ते हैं, तो ऐसे तो हम भी मूर्तिपूजने के कारण जड़पूजक किसी प्रकार भी नहीं हो सक्ते हैं, क्योंकि आपके मानने के अनुकूल ईश्वर सर्वव्यापक होने से मूर्ति में भी ईश्वर विद्यमान है, और देखिए मनुस्पति के नवम अध्याय के २८० श्लोक में लिखा है, यथाकोष्ठागारयुधागारदेवतागारभेदकान् । हस्त्यश्वरथहर्तश्च हन्या देवाविचारयन् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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