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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्य-वेदी इत्यादि वस्तु तो साकार हैं इनका चित्र बनाना तो योग्य है परन्तु ईश्वर हृदय में चिन्तनीय है, इस वास्ते इसकी मूर्ति कैसे बन सक्ती है । मन्त्री-यदि आप ईश्वर को हृदय मात्र चिन्तनीय और अरुपी मानते हैं तो ओम पदका सम्बन्ध ईश्वर के साथ न रहेगा क्योंकि ओम् पद रूपी है और ईश्वर अरूपी है तो फिर इस पदके ध्यान और उच्चारण से आपको क्या लाभ होगा? __ आर्य-जिस समय हम ओं पदका ध्यान और उच्चारण करते हैं उस वक्त हमारा आन्तरिक भाव जड़प ओं शब्द में नहीं रहता है प्रत्युत उस पदके वाच्य, ईश्वर में रहता है। मन्त्री-जबकि आपका भाव 'वाचक' ओं पदको छोड़ कर 'वाच्य ईश्वर में रहता है तो फिर आपको 'वाचकपद' ओं की क्या आवश्यकता है। - आर्य-श्रीमन् ! ओं पदकी आवश्यकता इस वास्ते है कि ओं शब्द के विना ईश्वर का ज्ञान नहीं होता । ___ मन्त्री-जिस प्रकार ओं पदकी स्थापना के विना ईश्वर का ध्यान नहीं होसक्ता इसी तरह मूर्ति के विना ईश्वर का ज्ञान भी नहीं होसक्ता, क्योंकि जब तक मनुष्य को केवल ज्ञान नहीं होता, तब तक मूर्ति के दर्शन विना ईश्वर के स्वरूप का बोव होना असम्भव है, और यह वर्णन पीछे भी हो चुका है कि एक आदमी ने तो हाथी को देखा हुआ है और दूसरे ने केवल नाम सुना हुआ है परन्तु असली हाथी कदापि नहीं देखा है अब देखना चाहिए कि दूसरे आदमी को 'जिसने केवल हाथी का नामही सुना है' जब तक हाथी की प्रतिमा इसको न दिखाई जाये तब तक असली हाथी का ज्ञान इसको कदापि नहीं हो For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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