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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७ ) देखकर अपने हृदय में विचारा, कि अहो! यह कैसी सुन्दरी युवति है, परन्तु खेद यह है कि यह मृत हुई २ है, यदि जीवित होती तो मैं अवश्य इससे अपनी इच्छा पूरी करता । नम्रता से वा लोभ से वा मीठी २ बातों से मान जाती तो अच्छा होता, नहीं तो मैं हठ से भी इसको न छोड़ता, चाहे मुझे कारागार जाना ही पड़ता, ऐसा दुष्टभाव हृदय में रखता हुआ आगे चला गया। थोड़ी देर पीछे फिर इसी मार्ग से एक और पथिक का आगमन हुआ, वह कोई बड़ा धर्मात्मा था और सदाचारी था, इसने जब उस मत स्त्री को देखा तो वह बड़े शोक समुद्र में डूब गया, और हृदय में विचार करने लगा कि यह संसार अप्तार है, इस संसार में जन्म जरा मरण रोग शोक आदि प्राणियों को नित्य ही दुःख दे रहे हैं। इन सर्व दुःखों में से मृत्यु का दुःख अधिक है, धन्य योगीश्वर महात्मा पुरुष हैं जिन्होंने इस संसार को अमार जानकर साग दिया। यह तो कोई बड़ी सदाचारिणी अच्छे भावों काली मधुरभाषिणी सत्कुलोत्पन्ना स्त्री प्रतीत होती है तथा प्रतीत होता है कि विचारी किसी आवश्यक कार्य के लिए जारही थी। हाय ! कर्म कैसे बलवान हैं, कि यह विचारी अकेली इस भयानक निर्जन बन में सर्प के काटने से मरगई। यदि मैं उस समय इस विचारी के समीप होता तो अवश्य इस सदाचारिणी को बचाने के लिये हृदय से यत्न करता, सम्भावना थी कि यह विचारी मृत्यु के वश न होती और अपना नित्यधर्म कर्म करके जन्म सफल करती। देखो कैसी मोहिनी मूर्ति है यह तो कोई साक्षात देवी है, ऐना विचार करके वह मनुष्य आगे चला गया। अब ध्यान करना चाहिये कि दोनों मनुष्यों ने For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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