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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) की बनावट पृथक् २ भी क्यों न हो, परन्तु अक्षरों के आकार को तो फिर भी ज्ञान का कारण स्वीकार करना ही पड़ेगा। चाहे उर्दू नागरी. अरवी आदि किसी भाषा के कों न हों, ऐसे ही मूर्तियां भी पृथक् २ श्रीऋषभदेव जी स्वामी और श्रीमहावीर जी स्वामी की हुई हैं। इन मूर्तियों को भी जिनकी यह मूर्तियां हैं, उनके ज्ञान का कारण स्वीकार करना ही पड़ेगा, क्योंकि हमने ईश्वर पतिमा नहीं देखी है इसलिये उसकी मूर्ति के विना ईश्वर प्रतिमा के सरूप का बोध हम को कदाचित नहीं होसक्ता, जो लोग मूर्ति को नहीं मानते हैं वे लोग ईश्वर परमात्मा का ध्यान कदाचित नहीं करसक्ते ॥ दंदिया-इम लोग अपने हृदय में परमात्मा की मूर्ति की स्थापना कर लेते हैं। मन्त्री -वाह जी ! वाह ! आपकी कैसी समझ है, अरेभाई ! जब आप हृदय में कल्पना कर लेते हैं तो बाहिर क्यों नहीं करते ? यह तो केवल कहने की बातें हैं कि हम मूर्तिके विना ध्यान कर सक्ते हैं। मूर्ति बड़ा भारी प्रभाव रखती है, यदि मूर्ति कुछ प्रभाव नहीं रखती, तो आप लोगों को परमात्मा की मूर्ति दखार द्वेषभाव क्यों प्रगट होता है, इससे सिद्ध होता है, मूर्ति बड़ा भारी प्रभाव रखती है। द्वेषियों को द्वेषभाव और रागियों को राग आता है। यदि आपको द्वेष आता है तो हमको आनन्द आता है जब परमात्मा की मूर्ति हम को इस संसार में आनन्द देती है तो परलोक में भी For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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