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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुंबई के जैन मंदिर प्रखर प्रज्ञा और प्रकाण्ड प्रतिभा के बल पर, कर्मग्रन्थ की संस्कृत टीकाओं, तत्वार्थ सूत्र की हरिभद्री तथा सिद्धसेनीय टीका, राजवार्तिक तथा श्लोकवार्तिक के जरुरी संदर्भो, कम्मपयडीकी पू. महोपाध्यायजी रचित टीका के जरुरी संदर्भो, उसी प्रकार व्याकरण-साहित्य-न्याय के आकर ग्रंथों, टीका ग्रंथो का मर्मग्राही अध्ययन आपश्रीने हसते-हसते ही कर लिया, और कलकत्ता युनिवर्सिटी की प्रारंभिक से तीर्थ तक की समस्त परीक्षाएँ First Class First उत्तीर्ण करके वे व्याकरण तीर्थ, साहित्य तीर्थ, न्याय तीर्थ बने। आप श्री को अध्ययन करानेवाले प्रकांड विद्वान और मूर्धन्य मनीषी पंडित श्री ईश्वरचन्द्रजी शर्मा थे। वह पण्डितवर्यने ४० वर्षों तक पढाये हुए श्रमणों-गृहस्थो में आपश्रीने श्रेष्ठ कक्षा के मेघावी मुनिवर के रुप में ख्याति प्राप्त की, एवं पू. पं. श्री अभयसागरजी म. जैसे विद्वज्जन भी आप की व्याकरण विषयक बुद्धि प्रतिमा से प्रभावित हुए थे। वि.सं. २०१२ में कलकत्ता युनिवर्सिटी की उच्च परीक्षा के दिनो में गुजरातमें नवसारी के निकट कालीयावाडी गाँव में सिर्फ ४७ दिन में २३ ग्रंथों, जिसमें स्याद्वाद- मंजरी, सर्व दर्शन संग्रह जैसे न्याय ग्रन्थों और साहित्य दर्पण, कादंबरी महाकथा, हर्षचरित, नैषध महाकाव्य, अभिज्ञान शाकुन्तल, मुद्राराक्षस आदि उच्च साहित्य ग्रन्थों का समावेश होता था, उनको पंडित की सहायता के बिना सिर्फ टीका ग्रन्थो के आधार पर आपने तैयार कर दिया था, जो आपकी प्रकृष्ट पटुता और उदाहरणीय प्रज्ञाशक्ति के द्योतक हैं। अनेक श्रमणों - गृहस्थों को आपने प्रकरणादि-व्याकरण ग्रन्थो-शास्त्र सिद्धान्तों का अध्यापन कराया, यह आप श्री के जीवन का झलकता उदाहरण है। बुक जैन पंचाग का श्रमण वर्ग में सर्वप्रथम उपयोगी प्रकाशन, 'जैन संस्कृत साहित्य का इतिहास' ग्रन्थ में संशोधनादि उल्लेखनीय योगदान, श्रीपाल चरित्र संपादन आदि साहित्य क्षेत्र की प्रवृत्ति के अलावा आपश्री के जीवन शिल्पी पूज्यपाद युगदिवाकर गुरुदेवश्री की मुम्बई महानगर और अन्य क्षेत्रोमें समस्त शासन प्रभावनाओं में आपश्री का आयोजनादि स्तर का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा हैं। चेम्बुर-घाटकोपर - कांदीवली - भाइन्दर जैसे संख्याबंध महाजिनालयों की अंजनशलाकाप्रतिष्ठा से लेकर प्रभु महावीर की २५ वीं निर्वाण शताब्दी को शानदार ढंग से मनाना, शत्रुजय महातीर्थ और गिरनार महातीर्थ के छरी'पालक पदयात्रा महासंघो तथा उसके बाद भी पूज्यपाद युगदिवाकर श्री की सर्व धर्म प्रवृत्तिओंमें आपश्रीने अग्रणी स्तर की कार्यवाही संभाल कर गुरुदेव के अंतर-आशिष को प्राप्त किया हैं। ____ क्रमश: योगोद्वहन करके वि.सं. २०३७ में प.पू. युगदिवाकर आ.भ. श्री धर्मसूरीश्वरजी म.सा. के वरद हस्ते गणि-पन्यास पद पर और वि.सं. २०४४ में पू. साहित्य कलारत्न आ.भ. श्री यशोदेवसूरीश्वरजी म. के शुभाशीर्वाद के साथ पूज्य शतावधानी आ.भ. श्री जयानन्दसूरीश्वरजी For Private and Personal Use Only
SR No.020486
Book TitleMumbai Ke Jain Mandir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal M Jain
PublisherGyan Pracharak Mandal
Publication Year1999
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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