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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एम शरण दृढ धार के, थिर करवो परिणाम । जब थिरता होये चित्तमां, तब निज रूप विसराम ॥ २१२ ॥ प्रतम रूप निहालतां करतां चितन तास । परमानंद पद पामी, सकल कर्म होय नाश ॥ २१३ ॥ परम ज्ञान जग एह छे, परम ध्यान पण एह । परम ब्रह्म परगट करे, परम ज्योति गुण गेह ॥ २१४ ॥ तिण कारण निज रूप में, फिरि फिरि करो उपयोग चिहंगति भ्रमण मिटाववा, एह सम नहीं कोई जोग। २१५३ निज सरूप उपयोग थी. फिरि चल्त जो थाय । तो अरिहंत परमात्मा सिद्ध प्रभु सुखदाय ॥२१६॥ तिनका प्रातम सरूप का अवलोकन करो सार । द्रव्य गुण पर्जव तेहना, चितवो चित्त मकार ॥ २१७ ॥ निर्मल गुण चिंतन करत, निर्मल होय उपयोग | तब फिरी निज सरूप का ध्यान करे थिर जोग || १८ || ) जे सरूप अरिहंत को, सिद्ध सरूप वली जेह । तेंहवो प्रातम रूप छे, तिणमें नहीं संदेह ॥२१६॥ चेतन द्रव्य साधमंता, तेणे करी एक सरूप । भेदभाव इनमें नहीं, एहवो चेतन भूप ॥ २२० ॥ धन्य जगत में तेह नर, जे रमे प्रतम सरूप । निज सरूप जेणे नवि लह्य, ते पडिया भव कूप ॥ २२१ ॥ [20] For Private And Personal Use Only
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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