SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अति थिरता उपयोग को, शुद्ध सरूप के मांही 1 करतां भवदुख सविटले, निर्मलता लहे तांही ॥ २०१ ॥ जेम निर्मल निज चेतना, अमल अखंड अनूप । गुण अनंत नो पिंड एह. सहजानंद स्वरूप ॥ २०२ ॥ ह उपयोगे वरततां थिर भावे लयलीन । निविकल्प रस अनुभवे, निज गूण में होय पीन ॥ २०३ || जब लगे शद्ध सरूप में वरते थिर उपयोग । तब लगे ग्राम ज्ञानमां, रमण करण को जोग ।। २०४ ॥ । जब निज जोग चालत होवे, तब करे ग्रह विचार | " स ंसार अनित्य छे, इसमें नहीं कुछ सार । २०५ । दुख ग्रनत की ख़ान एह, जनम मरण भय जोर । विषम व्याधि पूरित सदा, भव सायर चिहुं ओर ॥ २०६ ॥ एह सरूप संसार को, जाणी त्रिभुवन नाथ । , राज ऋद्धि सब छोड़ के चलवे शिवपुर साथ || २०७|| निश्चय दृष्टि निहालतां चिदानंद चिद् रूप । चेतन द्रव्य साघमंता, पूरणानंद सरूप ॥ २०८ ॥ , ग्रथवा पंच परमेष्ठी ग्रे, परम शरण मुझे एह । वली जिन वाणी शरण है, परम अमृत रस मेह || २१० ॥ ज्ञानादिक श्रातम गुणा, रत्न त्रयी अभिराम । अह शरण मुझ प्रति भलु, जेह थी लहं शिवधाम । २११ । [58] For Private And Personal Use Only
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy