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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीराँबाई सेज सुखमणा मीरा सोहै, सुभ है अाज धरी । तुम जानो राणा घर श्रपणे, मेरी तेरी नाहिं मरी ॥४॥ मोग मन्दाकिनी पद १०९ १.०५१] अथवा-आली रे मेरे नैनन बान पड़ी । टेक ॥ चित चढ़ी मेरे माधुरी मूरत, उर बिच श्रान अड़ी ॥१॥ xx मीरा गिरधर हाथ विकानी, लेग कहै धिगड़ी ॥ ४॥ [मोराबाई की पढावली वे० प्रे०५० २०] परन्तु मीरों के पदों में उनके आध्यात्मिक विकास का जो क्रमिक इतिहास मिलता है वह वास्तव में महत्वपूर्ण है। मीरों के पदों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर हमें चार-पाँच विशिष्ट धाराओं के पद मिलते हैं । मबसे पहले नाथ सम्प्रदाय के योगियों के प्रभाव से प्रभावित होकर मीण के कितने ही पद 'जोगी' के सम्बन्ध में मिलते हैं। एक प्रसिद्ध उदाहरण देखिए : जोगी मत जा मत जा, पाय परूँ मैं चेरी तेरी हौं । प्रेम भगति को पैड़ो ही न्यारी, हम गैन बता जा । अगर चदन की चिता रचाऊ, अपणे हाथ जला जा। जल जल भई भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा जा। मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा। [ मीराबाई की शब्दावली १.० ९८ } फिर संतों के प्रभाव से प्रभावित संसार और जीवन की नश्वरता प्रकट करने वाले भजन के पद मिलने है । एक उदाहरण देखिएः भज मन चरन कवल अबिनासी ॥ टेक।। जेताह दीसे घरनि गगन बिच, तेताह सब उठि जासी ।। कहा भया तारथ ब्रत कीन्हें, कहा लिए करवत कासी ॥ १॥ इस देही का गरब न करना, माटो में मिल जासी। यो संसार चहर की बाजी, साँझ पड़याँ उठि जासी ॥ २ ॥ [ मो० स० ० ० १.१.२] For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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