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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ach पाँचवाँ अध्याय मीरों को काव्य-कला कविता की कितनी परिभाषाएँ प्रचलित हैं, परन्तु उसकी एक सर्वसम्मत परिभाषा, उसकी समुचित मीमांसा और स्पष्ट व्याख्या आज भी न हो सकी। सच तो यह है कि कविता की स्पष्ट व्याख्या करना सम्भव ही नहीं है। जो वस्तु जितनी ही व्यापक और महत् होती है, वह उतनी ही सूक्ष्म और अव्यक्त भी होती है, और इसीलिए उसकी न कोई परिभाषा हो सकती है, न उसका कोई नियम हो सकता है और न कोई नियामक ही। ईश्वर, धर्म और काव्य ऐसी ही वस्तुएँ हैं। अनादि काल से इन तीनों के सम्बंध में कितने ही प्रकार के चिन्तन होते रहे हैं, परन्तु आज भी वे उसी प्रकार अस्पष्ट हैं, जैसे पहले थीं, और अंत में यही कहना पड़ता है : नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च । तो नस्ल द्वेद तद्वैद नो न वेदेति वेद च । केनोपनिषद् अर्थात् मैं न तो यह मानता हूँ कि उसको (ब्रह्म, धर्म, काव्य को) अच्छी तरह जान गया और न यही समझता हूँ कि उसे नहीं जानता। इसलिए मैं उसे जानता हूँ और नहीं भी जानता। अस्तु, कविता की सष्ट व्याख्या नहीं हो सकती, फिर भी सौभाग्य से कविता को सभी पहचान लेते हैं, यद्यपि सबकी पहचान एक दूसरे से भिन्न हो सकती है। कोई उसको उसके छंदों के प्रावरण से पहचानता है तो कोई उसके अंत्यानुप्रास से; कोई उसको संगीत से पहचानता है तो कोई उसकी गति से; कोई उसके अलंकारों पर मुग्ध है, तो कोई उसकी ध्वनि और व्यंजना पर; कोई उसके भावों की गहराई नापता है तो कोई अनुभूति की व्यापकता; कोई उसमें आनंद की खोज करता है तो कोई सांत्वना की । कविता में ये सभी तत्व थोड़ी-बहुत मात्रा में अवश्य मिल जाते हैं, परन्तु For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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