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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ मीराँबाई निसबासर मोहि बिरह सतावै, कल न परत पल मोइ री। मीरों के प्रभु हरि अबिनासी, मिलि बिछरो मति कोइ री ॥ [मीरों० पदा० पद० सं० ४८] परन्तु इस सरलता से उसकी व्यथा कम नहीं होती, बढ़ ही जाती है । उसका विरह-दुःख कितना अधिक है, उसमें कितनी व्यथा है, कितनी ज्वाला है, उसका वर्णन मीराँ ने बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया है । सरल हृदय से निकली हुई मीराँ की स्पष्ट और सहज व्यथा में कितनी पवित्रता है, कितना गाम्भीर्य है। नारी-प्रकृति का इतना स्वच्छंद, फिर भी इतना पवित्र और मर्यादापूर्ण उल्लास किसी भी साहित्य की अमूल्य निधि है और हिन्दी साहित्य को मीराँ के इन पदों पर समुचित गर्व होना चाहिए। गुसाई तुलसीदास ने भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ प्रमाणित करने के लिए एक अद्भुत तर्क उपस्थित किया है। मानस के उत्तरकांड में गरुड़ के इस प्रश्न पर कि 'ग्यानहिं भगतिहिं अंतर केता' काकभुशुंडि ने उत्तर दिया : भगतिहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदा । उभय हरहिं भवसंभव खेदा। नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर । सावधान सोउ सुनु विहंग वर ।। ग्यान बिराग जोग विग्याना । ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना । पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती । अबला अबल सहज जड़ जाती ।। पुरुष त्यागि सक नारिहि जो विरक्त मति धीर । न तु कामी जो विषय बस, बिमुख जो पद रघुबीर । सोउ मुनि ग्याननिधान, मृगनयनी बिधुमुख निरखि । बिकल होहिं हरिजान, नारि विष्नु माया प्रगट । इहाँ न पच्छपात कछु राखौं । वेद पुरान संत मत भाखौं। मोह न नारि नारि के रूपा । पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥ माया भगति सुनहु प्रभु दोऊ । नारि वर्ग जानहिं सब कोऊ ! पुनि रबुबीरहिं भगति पियारी । माया खलु नर्तकी बिचारी ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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