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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ मीराँबाई उनकी भक्ति-भावना नैसर्गिक जल-धारा के समान स्वच्छंद भाव से प्रवाहित हुई है। जिस प्रकार गुसाई तुलसीदास भक्तियुग के सबसे बड़े कवि-आचार्य हैं, उसी प्रकार मीराँ उस युग की श्रेष्ठतम कवि-गायक हैं। यहाँ सूर, तुलसी, कबीर और मीराँ का एक तुलनात्मक विवेचन अप्रासंगिक न होगा । जैसा कि पहले लिखा जा चुका है सूरदास और तुलसीदास ने ज्ञान के गौरव-गिरिशृंग पर भक्ति की सरस धारा उमड़ाई थी अतएव उनकी कविता में भक्ति और ज्ञान का संघर्ष स्पष्ट रूप से मिलता है। जनता को भक्ति की ओर आकृष्ट करने के लिए भक्ति को ज्ञान से, सगुणोपासना को निगणोपासना से श्रेष्ठ प्रमाणित करने की परम अावश्यकता थी। तुलसीदास ने इस समस्या को पौराणिक ढंग से सुलझाया ! रामचरित मानस में न जाने कितनी बार भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ बतलाया गया है। कितनी बार तो स्वयं परब्रह्म परमेश्वर स्वरूप भगवान् रामचंद्र ने अपने श्रीमुख से ही भक्ति की श्रेष्ठता घोषित की है। उत्तरकांड में वे स्वयं कहते है कि : _ 'भगतिवंत अति नीचहु प्रानी । मोहि प्रान सम अस मम बानी ।' और लक्षाण को ज्ञान तथा भक्ति का उपदेश करते हुए वे कहते हैं; जाते वेगि द्रवौं मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई । सो सुतंत्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ज्ञान विज्ञाना॥ ज्ञान और विज्ञान सबको भगवान राम ने अपनी भक्ति के अधीन बतलाया । इसी प्रकार उत्तरकांड में गुरु, ब्राह्मण, पुरवासी, बन्धुगण तथा मुनि-समाज के सामने भगवान् ने उपदेश करते हुए कहा था : ज्ञान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन महुँ टेका ॥ करत कष्ट बहु पावै कोऊ । भगति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ।। भगति सुतत्र सकल सुख खानी। ... ... ... ... ... और अंत में भक्ति की विशेषता बतलाते हुए कहा था : कहहु भगति पथ कवन प्रयासा । जोग न मख जप तप उपवासा ॥ सारांश यह कि भक्ति-मार्ग अत्यन्त सरल है; इसमें न योग साधना पड़ता है, न यज्ञ करना पड़ता है, न जप तप का काम है, न उपवास का । परन्तु भक्ति For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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