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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobalrm.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. लाग मन्त्रशास्त्रसे क्यों अश्रद्धा नाक द्वारा अपने कार्योंकी मिन विद्वजनोंके समान न्यूनतम तन्हाम। होकर अंतकाल देवके कारण महत्वको आनंदपूर्वक रीत्यानुसार जावेगा यदि आप लोलखना वृथा है एक बार अंगीकार करते जिस दियेगये हैं मेरी बुद्ध में तो इस समय मंत्रशास्त्र जितने प्रचलित होरहे हैं सब मंत्रमहार्णवके उदरस्थ होगये हैं और जो बिलकुल लुप्त होगये हैं उनके उद्धार करनेमें पुस्तकोंके न मिलनेके कारण में समर्थ नहीं हुवा कृपापूर्वक इतनेहीमें संतोप करें औरभी मंत्रमहार्णवमें ऐसी सुगम रीतियां दीगई हैं कि बड़े 2 विद्वजनोंके समान न्यून विद्यावालेभी तापूर्वक विचारांश करके अनुष्टानोंके द्वारा अपने कार्योंकी सिद्धी करने में समर्थ होवें हैं और कहते हैं कि आप लोग मन्त्रशास्त्रसे क्यों अश्रद्धा होते हैं आनंदपूर्वक रीत्यानुसार अनुष्ठान करें कृतकार्य होवोगे ब्राह्मण तो पूर्वकालमें / मंत्रशास्त्रकीही सिद्धिके कारण महत्वको प्राप्तथे उसको आपलोग क्यों नहीं अंगीकार करते जिसमें नाना क्लेशोंसे मुक्त। होकर अंतकालमें देवलोक प्राप्ति होवै. विशेष लिखना वृथा है एक वार मंत्रमहार्णवको अवलोकन करनसे स्वयंही ग्रंथका गुणदोष प्रगट होजावैगा यदि आप लोग अपनी दयालुताके कारण मंत्रमहार्णवको अपने कोमल हृदयरूपी मानससरमें हंसवत इस ग्रंथको स्थान देंगे तो थोडेही दिनोंमें औरभी कई विपयोंके ग्रंथ संग्रह करके आप लोगोंकी भेट करूंगा इस मेरे संगृहीत मंत्रमहार्णव ग्रंथके मुद्रणादि आधिकार मैंने मुंबईके 'श्रीवेङ्कटेश्वर” स्टीम् प्रेसके मालिक शेठ खेमराज श्रीकृष्णदासजीको दिये हैं इसमेंसे किसी भागको छापनेका किसीनेभी साहस नहीं करना। इत्यलं बहुनोल्लिखितेन-विदुपां कृपाभिलापिवरः / ग्रंथसंग्रहीता दोप प्रगट होकामानि होते. मातथे उसको For Private And Personal Use Only
SR No.020472
Book TitleMantra Maharnav
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages682
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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