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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वे राज-मार्ग हैं जिनके द्वारा शैतान हमारे हृदय-मानस में, जहाँ दैवी शक्ति विराजमान है, प्रवेश करता है। हमारी दूसरी इन्द्रियाँ इतने प्रत्यक्ष रूप में हमारे मानसिक घात में प्रवृ त नहीं होतीं । दोष-पूर्ण दृश्य और मूकदुर्भावनाएँ मिलकर हमारी श्रेष्ठता को दूर भगा देती और हमारे भीतरी अध्यात्म-दुर्ग को नष्टभ्रष्ट कर देती है। इस कारण वेद-द्रष्टाओं द्वारा यह महत्वपूर्ण प्रार्थना की जाती है कि वे भलाई तथा पवित्रता के अतिरिक्त न कुछ देखें और न ही कुछ सुनें । वैदिक अनुभव-कर्ताओं की प्रार्थना में हिन्दुओं की सर्व-सम्पत्ति का समावेश है । यदि समाज का हरेक प्राणी निष्ठा एवं दृढ़ता से यह कामना करता रहे कि उसे केवल पवित्रता की प्राप्ति हो और, यदि वह इस दिशा में प्रयत्नशील रहे, तो इस सांस्कृतिक युग में न तो जेलों की आवश्यकता रहेगी और न गन्दी बस्तियाँ ही दष्टिगोचर होंगी। उस अवस्था में निर्धनता का अस्तित्व न रहेगा तथा रोग ढंढने पर भी न मिलेंगे। आजकल की परिस्थितियों को देखते हुए हम निराश होकर यह सोच सकते हैं कि संसार में इस प्रकार की पूर्ण एवं आध्यात्मिक साम्यवादिता की स्थापना कभी नहीं हो सकती। चाहे कुछ हो, प्राचीन ऋषियों ने तो अपनी प्रार्थनाओं द्वारा इस उद्देश्य-पति की कामना की। उनकी प्रार्थना स्पष्ट रूप से हमें यह बताती है कि उनके ये दढ़ संकल्प कितनी पूर्णता की ओर संकेत करते हैं और उन्होंने अपने जीवन-काल में इसको कितनी मात्रा में अनुभव किया। साथ ही वे न केवल पूर्ण त्याग और विश्व-प्रेम की भावना से जीवनयापन करते थे बल्कि उनकी पीढ़ी, जो सब प्रकार से सम्पन्न थी, कभी शारीरिक एवं सांसारिक आवश्यकताओं से उदासीन न हुई। वे कभी जीवन के प्रति असन्तोष प्रकट नहीं करते थे। वे जीवन से सम्पर्क बनाये रखते और उसके प्रति अपनी पिपासा को शान्त करने के लिए सदा लालायित रहते । इस बात की पुष्टि उनकी इस प्रार्थना से होती है कि सृष्टि का अधिष्ठाता उन पर पर्याप्त अनुग्रह करे जिससे वे यावज्जीवन स्वास्थ्य तथा पूर्ण शक्ति से सम्पन्न रहें। इन्द्र, वायु, सूर्य आदि की स्तुति से हमें पता चलता है कि श्री कृष्णचन्द्र और अन्य पौराणिक देवताओं की भावना बहुत काल बाद हुई। इन For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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