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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर प्रार्थना करते और बाद में वे प्रवचन प्रारंभ करते । आजकल के घोर अविश्वास वाले युग में हमारे 'शिक्षित-अज्ञानी' विस्मिय भाव से यह जानना चाहेंगे कि जीवन में प्रार्थना की क्या महत्ता तथा आवश्यकता है और इसमें कितनी शक्ति निहित है। हम सब न केवल प्रभाव-रहित भीरु, दीर्घ-निस्वास लेने और सीमित शक्ति वाले जीव हैं बल्कि सर्व-शक्ति सम्पन्न, निर्भय, असीम, कल्याणकर और देवत्व से व्याप्त व्यक्तित्व भी हम में पाया जाता है। प्रार्थना ही एकमात्र साधन है जिसके द्वारा हम पूर्णता से तन्मयता प्राप्त करके अपने मन और बुद्धि को अधिक से अधिक सम्पन्न बनाने वाली शक्नि का आवाहन कर पाते हैं। इस तरह उपनिषदों के दैनिक अध्ययन को प्रारंभ करने से पहले गुरु और शिष्य अपने भीतरी सर्व-श्रेष्ठ तत्त्व का आवाहन करने के उद्देश्य से सर्वज्ञ ईश्वरत्व के प्रति आत्म-समर्पण करते हैं। शान्ति-पाठ का हरेक शब्द हमारी पाशविक वृत्तियों की घोषणा करता है । हम तो प्रार्थना द्वारा ईश्वर के नाम का उपयोग अपने वकील, कमीशन एजंट, डाक्टर आदि के रूप में करने लगे है बल्कि हत्या-सम्बन्धी कार्यों में भी हम उसकी सहायता चाहते हैं। ऐसी प्रवत्ति का हम में होना प्रार्थना सम्बन्धी साधन के कारण नहीं । यदि कोई नृशंस आवेश में आकर अपनी माता की हत्या कर देता है तो क्या उसके इस कार्य के लिए हम उसकी तलवार को दोष देने बैठेगे ? ऐसे ही प्रार्थना की शक्ति कल्याण देने वाली है । हम किसी नीच प्रयोजन के लिए प्रार्थना का उपयोग करते हैं तो हमारी प्रार्थना स्वतः दूषित हो जाती है । उपनिषदों के महान् द्रष्टा किसी सांसारिक इच्छा को कोई महत्व नहीं देते थे क्योंकि उन्होंने अनुभव द्वारा यह जान लिया था कि इसमें कोई सार्थकता नहीं है और न ही यह शोक से परे है । वे तो प्राणीमात्र के प्राध्यात्मिक विकास के लिए कामना किया करते थे । उपनिषदों के शान्ति-पाठ से सम्बन्धित सभी श्लोकों पर इस राष्ट्रीय भावना की गहरी छाप पड़ी हुई है। गुरु और शिष्य मिलकर सद्भावना से यह कामना करते थे कि वे अपने आध्यात्मिक जीवन में 'कल्याण' को ही देखें और सुनें । हमारी देखने और सुनने वाली इन्द्रियाँ For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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