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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - हिन्दा तथा अन्य लिपियों चलाया जाता है, जो कि किसी प्रकार भी इनका पूर्ण तथा शुद्ध द्योतक नहीं है, जैसा कि इससे स्पष्ट है कि गङ्गा, प्रणाम आदि को 15 ( गनगा) परनाम ) आदि की भाँति लिखना पड़ता है। अर्द्धवर्ण कोई लिखा ही नहीं जाता जैसे धर्म, भक्ति आदि उर्दू में (.- (धरम ), 3 ( भगत ) अदि हो जाते हैं जबर जेर पंश क्रमशः अ इ उ की मात्राओं का काम देते हैं, परन्तु व अपूर्ण हैं उदाहरणार्थ मुक्ति के स्थान में . ( मुक्ती ), कि के स्थान में ( कह अथवा के ), प्रकाशचन्द्र के स्थान में in : (परकाश चन्दर ), इत्यादि लिखे जाते हैं। अतः उर्दू वर्णमाला नितान्त अपूर्ण है, उसमें संस्कृत का कोई भी श्लोक शुद्धता पूर्वक नहीं लिखा जा सकता है। अति व्याप्ति की तो यह दशा है कि बड़े-बड़े मौलवी तक के चक्कर में पड़ जाते हैं। 'स' ध्वनि के लिए - ह के लिए ...त के लिए • . अ के लिए 18, ज़ के लिए न के लिए! इत्यादि आते हैं अर्थात उन ध्वनियों के लिए, जिनका एक-एक चिह्न पर्याप्त था वृथा भ्रम में डालने के लिए अनावश्यक रूप से कई कई चिह्न आते हैं। यद्यपि बड़े-बड़े मौलवियों के अनुसार इनमें सूक्ष्म ध्वन्यात्मक भद अवश्य है, परन्तु सर्व साधारण उसे नहीं समझते । अतः व शुद्धतया प्रयुक्त होने के स्थान में उल्टी भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार उदू के ३८ वर्षों में है अनावश्यक है। रोमन लिपि तो उक्त दोनों दोषों में उर्दू से भी गई-बीती है। इसमें ङ सण ढ़ ड त द ख ज्ञ अ के लिए कोई लिपि संकेत नहीं है । ङ अ ण के लिए n आता है जो इतना अपूर्व है कि Danka ( डंका) को डाँका, डानका, डनका जो चाहो सो पढ़लो; इसी प्रकार पंडित Pandit (पंडिट), प्रसाद को Prasad (प्रसाड), गड़बड़ को Garbar ( गरबर ), पढ़ो को For Private And Personal Use Only
SR No.020455
Book TitleLipi Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Mehrotra
PublisherSahitya Ratna Bhandar
Publication Year2002
Total Pages85
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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