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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्कों का संक्षिप्त इतिहास इसके पूर्व एशिया और यूरोप की चाल्डिअन, हिब्र, ग्रीक, अल्ब आदि जातियाँ वर्ण माला के अक्षरों से अंकों का काम लेती थीं । अरबों में खलीफावलीद के समय (ई० स० ७.५-५१५) रक अङ्कों का प्रचार नहीं था, जिसके बाद उन्होंने भारतवासियों से अङ्क लिए इसकी पुष्टि अल नरुती ने भी अपनी पुस्तक 'इंडिया', भाग १, में इस कथन द्वारा की है, हिन्दू लोग अपनी वर्णमाला के अक्षरों से अङ्गों का काम नहीं लेते थे जैसा कि हम हित्र व गाला के क्रम के अनुमार अरबी अक्षरी को काम में ताते हैं। भारत में जिस प्रकार की प्राकृतियाँ भिन्न हैं, वैसे ही या सूचक चिमों की प्राकृतियाँ भी भिन्न है। जिन ग्रहों को हम प्रयोग में लाने सुन्दर अङ्की से लिए गए हैं। प्रोमाजी को मना रहीं द्वारा भी होती है यथा प्रकरजी विश्वको: (Encyclopedia Brita. miica) में दिया है, "इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारा (अङ्ग रंजी) वर्तमान अङ्कक्रम ( दशगुणोत्तर) भारतीय उपज है। इन अङ्गों का अरब में प्रवेश संभवतः ७७३ ई. में हुआ, जब कि एक भारतीय राजदूत रखगोल लंबंधी सारगियाँ अगदाद में नाया था। फिर ६ वीं शना के प्रारंभिक काल में अबुजफर महम्मद लखाउमी ने अरबी में उक्त क्रम की व्याख्या की और उसी समय से अरबों में उसका प्रचार अधिक होने लगा। _ यूरोप में अन्य सहित यह सम्पूर्ण अल क्रम' १२ वीं शता में प्रअरबों से लिया गया और इस क्रम द्वारा बना हुश्या अङ्क गणित अता गोरिदमल ( अल्गोरिथम अहलाया : जो कि विवेशी शब्द अलस्वादिमी' का अक्षतामान है अतः मारतीय अङ्कम का प्रवेश अरन से वी शता में और अरब से यूरोप में १२ वी सामः- में हुआ। 1. Alican'Mindis', म.यह १, पृ. १४४ ! 2.intopedia aritannica, म:३३ : पृष्ठ ३२६ । For Private And Personal Use Only
SR No.020455
Book TitleLipi Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Mehrotra
PublisherSahitya Ratna Bhandar
Publication Year2002
Total Pages85
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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