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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास ७:-का पहिला रूप आंध्र राजाओं के शिलालेखों में उपलब्ध है । दूसरा रूप पहिले का रूपान्तर है और त्वरालेखन द्वारा बना है । यह क्षत्रिय राजाओं के सिक्कों में उपलब्ध है। तीसरा और चौथा रूप इसी के रूपांतर हैं । ये क्षत्रिय राजाओं के सिक्कों और बल्लभी राजाओं के ताम्रपत्रों में उपलब्ध हैं। ८:-का पहिला रूप आंध्र राजाओं के शिलालेखों में और दूसरा और तीसरा गुप्त राजाओं के लेखों में उपलब्ध है। ___:-का पहिला और दूसरा रूप आंध्र राजाओं के सिक्कों में उपलब्ध है। चौथा रूप गुप्त राजाओं के लेखों में उपलब्ध है और त्वरा लेखन के कारण तीसरे रूप से निष्क्रमित हुआ है। पांचवे रूप का प्रादुर्भाव त्वरा लेखन द्वारा चौथे रूप से हश्रा है और यह १० वीं शता० के लेखों में प्राप्त है। छठा रूप इसी का रूपान्तर मात्र है सब से प्रथम कुछ अंक-चिह्न अशोक के शिलालेखों में मिलते हैं। इसके पूर्व के अंक-चिन्ह अप्राप्य हैं; परन्तु इसके यह मानी नहीं हैं कि भारत में मौर्य-काल के पूर्व अंक-चिन्ह थे ही नही और इस समय वे किसी विदेशी अंक-लिपि के आधार पर निर्मित कर लिये गए, जैसा कि कुछ विद्वानों का मिथ्या भ्रम है। - यहाँ कुछ विदेशी अङ्क लिपियों की व्याख्या कर देना उचित है। मिश्र का सबसे प्राचीन अङ्क हाइरोग्लाइफिक चित्र लिपि था। हाइरोग्लाइफिक अङ्क लिपि में १, ५० तथा १०० केवल तीन अक चिन्ह थे। इन्हीं तीन अकों से ६६६ तक के अङ्क अनते थे। १ का अङ्क चिन्ह एक खड़ी लकीर था, १ से ६ तक के अङ्क १ के अङ्क चिन्ह को दाई ओर क्रमशः १ से ६ बार लिखने से बनते थे। ११ से १६ तक के लिए १० के अङ्क विन्ह के बाई ओर क्रमशः १ से तक खड़ी लकीरें अर्थात् १ का अङ्क चिन्ह लगाने से बनते थे । १० से ६० तक के अङ्क चिन्ह १० के अङ्क For Private And Personal Use Only
SR No.020455
Book TitleLipi Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Mehrotra
PublisherSahitya Ratna Bhandar
Publication Year2002
Total Pages85
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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