SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास रूप कन्नौज के गहरवार राजा जयचंद के ताम्रपत्र ( ११७५ ई० । तथा मालवा के परमार वंशी महाकुमार उदय वर्मा के ताम्रपत्र (१२०० ई०) में उपलब्ध है। जः--के पहिले के बाद के समस्त रूपान्तर सुन्दरता लान, सिरबेंदी लगाने तथा त्वरा लेखन के कारण हुए हैं। --का दूसरा रूप ब्राह्मण राजा शिवगण के कसवाँ के लेख में ( ७३८ ई०) उपलब्ध है। तीसरा रूप राठौर राजा गोविंदराज तृतीय के ताम्रपत्र में ( ८०७ ई.) में प्राप्य है। चौथा रूप जैन पुस्तकों में प्राप्य है और राजपूताने में प्रयुक्त होता है . यह 'झ' से मिलता-जुलता है। अः-का दूसरा रूप उक्त राजा अपराजित कालीन एक लेख में ( ६६१ ई.) प्राप्य है। तीसरा रूप कुमारगुप्त कालीन मंदसौर के लेख में ४७२ ई०) उपलब्ध है। चौथा रूप तीसरे का रूपान्तर है। ट:-के पहिले के बाद के रूपान्तर सिरबंदी लगाने तथा सुन्दरता जाने की चेष्टा के फल स्वरूप हैं। ठः-के पहिले के बाद के रूपान्तर सिरबंदी लगाने के कारण हुए हैं। ड:-का दूसरा रूप त्वलेखन के कारण पहिले रूप से बना है और जैन राजा खारवेल के हाथी गुम्फा के लेख में (२री शता० पूर्व) उपलब्ध है। शेष रूपान्तर त्वरालेखन अथवा सुन्दरता लाने के कारण हुए हैं। ढः--का दूसरा रूप सिरबंदी लगाने के कारण बना है। यह आज तक अपने इसी रूप में है। रण-का दूसरा तथा तीसरा रूप कुशन लेखों में उपलब्ध है। चौथे रूप सिरबंदी लगा देने से 'ण' और छठे रूप में सिरबंदी लगा देने से 'ण' बना है। For Private And Personal Use Only
SR No.020455
Book TitleLipi Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Mehrotra
PublisherSahitya Ratna Bhandar
Publication Year2002
Total Pages85
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy