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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी का विकास २७ सारांश यह है कि खरोडी दाई ओर से बाईं ओर लिखी जाने वाली एक अपूर्ण लिपि थी जिसमें संयुक्ताक्षरों की कमी और सात्राओं का अभाव था | अरमइक को काट-छाँट कर खरोष्टी की स्थापना करने का कार्य संभवतः खरोष्ठ ऋषि ने किया था। बाद में इसका इतना प्रचार हुआ कि लगभग ४२५ ई० पू० में उत्तरी-पच्छिमी भारत के हवामनी साम्राज्य से स्वतन्त्र हो जाने पर भी तीसरी शताब्दी ई० पू० में इसका वहाँ खूब प्रचार था, परंतु इससे किसी लिपि का निष्क्रमण न होने के कारण इसका वंश न चल सका और लगभग पाँचवीं शताब्दी तक इसका पूर्णतः अंत हो गया । ब्राह्मी का विकासम लगभग ३५० ई० पू० तक ब्राह्मी का प्रचार अधिक और रूप अपरिवर्तित रहा, तत्पश्चात् शैली की दृष्टि से उसके उत्तरी तथा दक्षिणी दो भेद हो गए । दक्षिणी से दक्षिणी भारत की मध्य तथा आधुनिक कालीन लिपियों अर्थात् तामिल, तेलुगु, कनड़ी, कलिङ्ग, ग्रंथ, पश्चिमी तथा मध्य प्रदेशी आदि का निष्क्रमरण हुआ । चौथी शताब्दी में उत्तरी त्राची वणों के सिरों के चिन्ह कुछ तंत्रे, कुछ वर्षों की आकृतियाँ कुछ-कुछ नागरी सदृश तथा कुछ मात्राओं के चिन्ह परिवर्तित हो गए। गुप्त राज्य के प्रभाव से ब्राह्मी का यह रूप गुप्त-लिपि कहलाने लगा। चौथी, पाँचवीं शताब्दी में इसका प्रचार समस्त उत्तरी भारत में था । छठी शताब्दी में गुप्त लिपि के वर्णों की आकृति कुछ कुटिल हो गई, तदनुसार, ये वर्ण कुटिताक्षर और लिपि कुटिल कहलाने लगी । इसका छठी से नवीं शताब्दी तक उत्तरी भारत में खूब प्रचार था तत्कालीन शिलालेख तथा दानपत्र इसी में लिखे जाते थे । कुटिल लिपिसे, संभवतः दसवीं शताब्दी में, नागरी तथा शारदाका निष्क्रमण For Private And Personal Use Only
SR No.020455
Book TitleLipi Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Mehrotra
PublisherSahitya Ratna Bhandar
Publication Year2002
Total Pages85
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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