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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ साहूणं चेव सव्वेसिं। (प्रव.४) अरहंतं (द्वि.ए. प्रव.८०) अरहंता (प्र.ब.८२) अरि पुं [अरि] शत्रु, रिपु! (शी २०) सीलं तवो विसुद्धं,दसणसुद्धी य णाणसुद्धीय । सीलं विसयाण अरी, सीलं मोक्खस्स सोवाणं। अरिह पुं [अर्हस् सर्वज्ञ, वीतरागी, केवलज्ञानी, जिनदेव, अरहंत। (स.४०९) ण उ होदि मोक्खमग्गो, लिंगंजं देहणिमम्मा अरिहा। अरुव वि [अरूप] रूप सहित, आकार शून्य, अमूर्त। (पंचा.१२७ स.४९) अरसमरूवमगंधं । (स.४९) अरूह पुं [अर्हस्] सर्वज्ञ, अरहन्त। (शी.३२) -पय पुं न [पद] अर्हत्पद, अर्हत् स्थान, अर्हन्त के कारण। जाए विसयविरत्तो सो गमयदि णरयवेयणं पउरं। ता लहेदि अरूहपयं, भणियं जिण-वड्ढमाणेण|| (शी.३२) अल्लिय वि [आलीन युक्त। (निय. ४७) भवमल्लियजीवा तारिसा होति। (निय.४७) अवगय वि [अपगत] विनष्ट, नाशरहित। (स.३०४) - राध पुं [राध] अपराध से रहित। शुद्ध आत्मा की सिद्धि या साधन को राध कहते हैं, जिसके यह नहीं है, वह सापराध है। सापराध पुरुष को बन्ध की शंका संभव है। जिसके सिद्धि है, वह निरपराध है। निरपराध पुरुष निः शंक हुआ अपने उपयोग में लीन होता है। संसिद्धिराध सिद्धं, साधियमाराधियं च एयठं अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो।। (स.३०४) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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