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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 308 प्रव. ज्ञे. ६०) जोगो मणवयणकायसंभूदो। (पंचा. १४८) संमूढ वि [ संमूढ] जड़, विमूढ, मुग्ध । आदवियप्पं करेदि संमूढो । (पंचा. २५) संवर पुं [संवर] कर्मनिरोध, नूतन कर्मानव का अभाव, सात तत्त्व एवं नव पदार्थों का एक भेद । (पंचा. १०८, स. १३, निय. १००, द्वा. २, भा. ५८) आदा मे सवरो जोगो (स. २७७) चल, मलिन और अगाढ दोषों को छोड़कर सम्यक्त्वरूपी दृढकपार्टी के द्वारा मिथ्यात्वरूपी आम्रवद्वार का निरोध होना संवर है । ( द्वा. ६१ ) - जोगपुं [ योग ] संवर का योग । ( पंचा. १४४ ) - भावविमुक्क वि [ भावविमुक्त ] संवर के भाव से रहित । ( द्वा. ६५ ) - हेदु पुं [ हेतु ] संवर का कारण । ( द्वा. ६४) संवर का हेतु ध्यान है। शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। (स. २२) संवच्छर पुं [संवत्सर ] वर्षं, मासोदुअयणसंवच्छरोति । (पंचा. २५) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only साल । संवरण न [ संवरण] निरोध, आवरण, आच्छादन । (पंचा. १४३, द्वा.६३) समस्त परद्रव्यों का त्याग करने वाले व्रती पुरुष के जब पुण्य और पाप दोनों प्रकार के योगों का अभाव हो जाता है। तब उसके शुभ और अशुभ कर्मों का संवरण होता है। (पंचा. १४३) शुभयोग की प्रवृत्ति, अशुभयोग का संवरण करती है । (द्वा. ६३) संवुक्क पुं [ शम्बूक ] क्षुद्र श | संवुक्कमादुवाहा । (पंचा. १४४.) संसग्ग पुंस्त्री [ संसर्ग ] सम्बन्ध, सम्मिश्रण, संपर्क, संगति । संसगं
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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