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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 306 संथुण सक [सं+स्तु] स्तुति करना,प्रार्थना करना। (लिं.२१) णिच्च संथुणदि पोसए पिंडं। (लिं.२१) संधुद/संथुय वि [संस्तुत] प्रशस्त, जिसकी स्तुति की गई हो, पूजनीय। (स.२८, ३७३, भा.७५) मण्णदि हु संधुदो। (स.२८) संथुदि स्त्री [संस्तुति] स्तुति, श्लाघा, प्रशंसा। (स.२६) तित्थयरायरियसंथुदी चेव। (स.२६) संदेह पुं [संदेह] संशय, शङ्का, अनिश्चितता। (निय.१७१, मो.३६) परिहरदि परंण संदेहो। (मो.३६) संधुण सक [सं+धुन्] नष्ट करना, उड़ा देना। (पंचा.१४५) णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं । (पंचा.१४५) संपओग पुं [संप्रयोग] सम्बन्ध, संयोग। (पंचा.१७०) संजमतवसंपओगस्स। संपज्ज पुं सिं+पद्] सम्पन्न होना, प्राप्त होना, सिद्ध होना। (प्रव.६ संपडि अ [सम्प्रति] इस समय,अब। (स.३८५)संपडि य अणेयवित्थरविसेसं। -काल पुं [काले] वर्तमानकाल। संपडिकाले भणिज्ज रूवमिणं । (स.ज.वृ.१८६) संपण्ण वि [संपन्न] युक्त, सम्बद्ध, पूर्णता को प्राप्त। णाणभत्तिसंपण्णो। (पंचा.१६६) संपद अ [साम्प्रतम्] अधुना, अब, इस समय। (निय.३२) भावि संपदा समया। संपदि देखो संपडि (बो.२७) चउणा गदि संपदि मे। संपरिक्ख सक [संपरि+ईक्ष् सम्यक्परीक्षा करना, अच्छी तरह से For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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