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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 293 इन आठ को विषकुम्भ कहा है। (स.३०६) -परिहय वि [परिहत विष से पीड़ित, विष से दुःखित। विसयविसपरिहयाणं। (शी.२२) -पुष्फ न [पुष्प] विषपुष्प। (भा.१५७) -वेयणाहद स्त्री [वेदनाहत] विष वेदना से पीड़ित। मरिज्ज विसवेयणाहदो जीवो। (शी.२२) विसंवादिणि वि [विसंवादिन्] असत्य, अप्रमाणिक, मिथ्या। (स.३) विसद वि विशद्] निर्मल, स्वच्छ, प्रत्यक्ष। (पंचा.१) तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं । (पंचा.१) विसम वि [विषम] विषमता लिए हुए, असमान, एक-सा नहीं। तेकालणिच्चविसमं। (प्रव.५१) । -विसय पुं [विषय] 1. इन्द्रिय द्वारा गृहीत होने योग्य पदार्थ, कामभोग, सांसारिक विषय,भोगविलास। (पंचा.१२९, स.२२७, प्रव.२६ भा.१५, द.१७, शी.२) विसयादो तस्स ते भणिदा। (प्रव.२६)-अतीद वि [अतीत]विषयों से रहित, विषयों से परे। विसयातीदं अणोवममणंतं। (प्रव.१३) -अत्य पुं [अर्थ] विषयार्थ, विषय का प्रयोजन। विसयत्यं सेवए ण कम्मरयं। (स.२२७) आसत्त वि [आसक्त विषयों में तत्पर, विषयों में लीन। (शी.२३) -कसाय पुं [कषाय] विषय कषाय। जदि ते विसयकसाया। (प्रव.चा.५८) -गह न [ग्रहण] विषयग्रहण, इन्द्रिय जन्य विषयों को स्वीकारना। तेहिं दु विसयग्गहणं। (पंचा.१२९) -तण्हा स्त्री [तृष्णा] विषयों की अभिलाषा, इन्द्रिय सम्बन्धी सुखों की For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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