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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 157 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (बो. ५५) णिज्जर वि [निर्जर] कर्मक्षय, कर्मपरमाणुओं का आत्मा से पृथक् करना। (पंचा. १०८, स. १३) - णिमित्त न [ निमित्त ] निर्जरा के कारण । (स.१९३) - हेदु पुं [ हेतु ] क्षय का कारण । (पंचा. १५२) ज्ञान एवं दर्शन से युक्त, अन्य द्रव्यों के संयोग से रहित, ध्यान स्वभाव सहित साधु के निर्जरा का कारण होता है। (पंचा. १५२) णिज्जर सक [ निर्+] क्षय करना, नाश करना। णिज्जरमाणो (व.कृ.पंचा. १५३) णिज्जरण न [ निर्जरण ] नाश, क्षय कम्माणं णिज्जरणं । (पंचा. १४४) बंधे हुए कर्मप्रदेशों का गलना, एक देश क्षय होना निर्जरा है। (द्वा. ६६) बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं । निर्जरा दो प्रकार की है - सविपाक ( अपना उदयकाल आने पर कर्मों का स्वयं पककर झड़ जाना) और अविपाक निर्जरा ( तप आदि के द्वारा की जाने वाली) । णिज्जावय वि [निर्यापक] गुरु के उपदेश को अङ्गीकार करने वाला, संयम के भङ्ग होने पर गुरु के द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाला, सल्लेखना ग्रहण करने वाला। ( प्रव. चा. १०) णिज्जिय वि [निर्जित] जीता हुआ, पराभूत । (भा. १५५) णिज्जुत्ति स्त्री [निर्युक्ति ] व्याख्या, विवरण । (निय. १४२) गिट्ठव सक [नि+स्थापय् ] पूर्ण करना, नष्ट करना। (भा. १४८) ििद वि [निष्ठित ] भरा हुआ, पूर्ण किया हुआ । ( प्रव. ज्ञे. ५३) लोगो अद्वेर्हि णिट्टिदो णिच्चो । For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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