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कल्पसूत्र ।। २८ ।।
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* सामी ! इच्छिय-मेयं सामी ! पडिच्छियमेयं सामी ! इंच्छिय-पडिच्छिय-मेयं सामी ! सच्चे णं एसमठ्ठे से जहेयं तुब्भे वयह त्ति कट्टु ते सुमिणे सम्मं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रन्ना अब्भणुन्नाया समाणी नाणा - मणि - कणग-रयण-भक्ति - चित्ताओ भासणाओ अब्भुइ अभुत्ता अतुरिय- मचवल-मसंभंताए | अविलंबियाए रायहंस - सरिसीए गईए जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी । सू. ५५ ॥
मा मे ते उत्तमा पहाणा मंगला सुमिणा दिठ्ठा, अन्नेहिं पाव - सुमिणेहिं पडि - हम्मिस्संति त्ति कट्टु देवय- गुरुजण - संबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगलाहिं धम्मियाहिं लठ्ठाहिं कहाहिं सुमिण - जागरियं जागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ ।। सू. ५६ ।। तए णं | सिद्धत्थे खत्तिए पच्चूस - काल - समयंसि कोडुंबिय - पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी ॥ सू. ५७ ॥ खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवठ्ठाण - सालं | गंधोदग - सित्तं सुइ- संमज्जिओ-वलित्तं सुगंध - वर - पंचवन्न - पुप्फोवयार-कलियं कालागुरु- पवर- कुंदुरुक्क - तुरुक्क डज्झत- धूव मघमघंत – गंधुद्धुया - भिरामं
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मूळ
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