SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद 11144 11 4050040540500 www.kobatirth.org मल्लक आदि का परिभोग करना और सचित्तादि का परित्याग करना । उसमें सचित्त द्रव्य-अति श्रद्धावान् राजा और • राजा के मंत्री सिवा शिष्य को दीक्षा न देना । अचित द्रव्य वस्त्रादि ग्रहण न करना । मिश्र द्रव्य-उपाधि सहित शिष्य • ग्रहण न करना । क्षेत्र स्थापना एक योजन और एक कोस-पांव कोस तक आना जाना कल्पता है। बीमार के लिये वैद्य 'औषधि के कारण चार या पांच योजन तक कल्पता है । काल स्थापना -चार महीने तक रहना और भावस्थापना क्रोधादि का परित्याग और ईर्यासमिति आदि में उपयोग रखना 118 ।। चातुर्मास रहे साधु साध्वियों को चारों दिशा और विदिशाओं में एक योजन और एक कोस तक अर्थात् पांच नकोस तक का अवग्रह कल्पता है । अवग्रह कर के 'अहालंदमिव' जो कहा है उसमें अथ यह शब्द से काल समझना चाहिये । उसमें जितने समय में भीना हुआ हाथ सूक जाय उतने कालको जघन्य लंद कहते हैं पांच अहोरात्र पांच समग्र रातदिन को उत्कृष्ट लंद कहते है और इसके बीच का काल मध्यम लंद कहलाता है । • लंदकाल तक भी अवग्रह के अन्दर रहना कल्पता है, पर अवग्रह से बाहर रहना नहीं कल्पता है, परन्तु अवग्रह के । बाहर रहना नहीं कल्पता अपिशब्द से याने अलंदमपि अधिक कालतक छः मास तक एक साथ अवग्रह में रहना कल्पता है परन्तु अवग्रह के बाहर रहना नहीं कल्पता गजेन्द्र पद आदि पर्वत की मेखला के ग्रामों में रहे हुए साधु साध्वियों को उपाश्रय से छः ही दिशाओं में जाने का ढाई कोस और आने जाने का पांच कोस का अवग्रह होता है। अटवी, जलादि से व्याघात होने पर तीन दिशाओं का दो दिशाओं का या एक दिशा का अवग्रह जानना For Private and Personal Use Only 筑 魯魯魯 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नौवा व्याख्यान
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy