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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 00000000000 www.kobatirth.org श्रेयांसकुमार के दान के समय नेत्र से आनन्द के आंसुओं की धारा, वाणीरूप दूध की धारा और इक्षुरस की मन धारा स्पर्धा से बढ़ती थी, उसी विशुद्ध भावनारूप जल से सिंचित धर्मरूप वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होने लगा। से प्रभु ने वर्षी तप का पारणा किया। उस वक्त वसुधारा (धन) की वृष्टि 1, चेलोत्क्षेप (वस्त्र की वृष्टि) 2. आकाश में देवदुंदुभि 3, गंधोदक पुष्पवृष्टि, सुंगधमय जल और पुष्पों की वर्षा 4 और अहो दान अहो दान इस प्रकार की आकाश में घोषणा हुई 5। इस तरह पंच दिव्य प्रगट हुए । तब सब लोग वहां एकत्रित हुए। श्रेयांसकुमार ने कहा- हे सज्जनों ! सद्गति की इच्छा से इस प्रकार साधुओं को शुद्ध आहार की भिक्षा दी जाती है । इस तरह इस अवसर्पिणी में प्रथम 'श्रेयांसकुमार ने दान की प्रवृत्ति की । लोगों ने श्रेयांस से पूछा कि तुमने कैसे जाना ऐसा दान देना चाहिये ? श्रेयांसने • प्रभु के साथ अपना आठ भवों का सम्बन्ध कह सुनाया जब प्रभु दूसरे देवलोक में ललितांग नामक देव थे तब मैं पूर्वभव की इनकी स्वयंप्रभा नामादेवी हुई थी. फिर जब ये पूर्वविदेह में पुष्कलावती विजय में लोहार्गल नामक नगर ' में वज्रजंध नामक राजा थे तब मैं श्रीमती नामा इनकी रानी थी। वहां से उत्तरकुरू में । इनकी युगलनी थी । वहां से पहले देवलोक में हम दोनों देव हुए। वहां से प्रभु पश्चिम महाविदेह में वैद्यपुत्र थे तब में केशव नामक जीर्ण शेठ का पुत्र इनका मित्र था। वहां से हम दोनों बारहवें देवलोक में देव हुए। वहां से पुंडरीकिणी नगरी में प्रभु वज्रनाम नामा चक्रवर्ती थे उस वक्त मैं इनका सारथी था और वहां से हम दोनों 26 वें देवलोक में देव थे तब मैं For Private and Personal Use Only 40 500 500 40 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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