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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kalassagarsun Gyarmandie श्री कल्पसूत्र हिन्दी सातवां व्याख्यान अनुवाद 11122|| उनमें से एक घड़ा उठा कर श्रेयांस प्रभु के समक्ष हो कर बोला-"प्रभो ! यह योग्य भिक्षा ग्रहण करो" उस वक्त प्र प्रभु ने भी हाथ पसार दिये । श्रेयांस ने घड़े का सारा रस बोहरा दिया परन्तु एक भी बूंद नीचे नहीं गिरी । इसकी • शिखा ऊपर को ही बढ़ती गई । कहा भी है कि "जिसके हाथों में हजारों घड़े समा जायें या समुद्र समा जाय ऐसी लब्धि जिसे प्राप्त हो वहीं करपात्र होता है । एक वर्ष तक प्रभु ने भिक्षा ग्रहण नहीं की उस पर कवि घटना करता है कि प्रभु ने अपने दाहिने हाथ से कहा-अरे ! तू भिक्षा क्यों नहीं लेता ? तब वह कहता है कि-हे प्रभो प! मैं देनेवाले के हाथ नीचे किस तरह रक्खू ? क्यों कि पूजा, भोजन, दान शान्तिकर्म, कला, पाणिग्रहण, कुंभ स्थापना, शुद्धता, प्रेक्षणादि कामों में मैं वरता जाता हूं। यों कह कर जब दाहिना हाथ चुप रहा तब प्रभने बाये हाथ को कहा-भाई ! तूं ही भिक्षा ले । जवाब में बांया हाथ बोला-महाराज ! मैं तो रणसंग्राम में सन्मुख होनेवाला #हूं, अंक गिनने में और बाई करवट से सोना हो तब सहाय करनेवाला हूं । यह दाहिना हाथ तो जुए आदि पर व्यसनवाला है । फिर दाहिना बोला-'मैं पवित्र हूँ. तूं पवित्र नहीं है । फिर प्रभु ने दोनों को समझाया कि-तुम .. दोनों ने मिलकर ही राज्यलक्ष्मी उपार्जन की है. तथा अर्थीजनों के समूह को दान देकर कृतार्थ किया है अतः तुम " निरन्तर संतुष्ट हो तथा दान देनेवालों पर दया लाकर अब दान ग्रहण करो । इस प्रकार प्रभुने एक वर्ष तक दोनों * हाथों को समझा कर श्रेयांसकुमार से ताजा इक्षु रस ग्रहण किया । ऐसे श्री ऋषभप्रभु तुम्हारा रक्षण करो । 60000 ) For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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