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________________ Shri Maharan Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir 3000 1CH ॐ इसने शरीरसुख की इच्छा से कौंच की फली को आलिंगन किया है । खैर इन विचारों से क्या ? मैं अभी जाकर उसे निरुत्तर कर देता हूं; क्यों कि जब तक सूर्य नहीं ऊगता तब तक ही खद्योत-और चंद्रमा प्रकाशमान रहते हैं. परन्तु सूर्योदय होने पर वे स्वयं फीके पड़ जाते हैं । वे हरिण, हाथी, घोड़ों के समूहो ! तुम शीघ्र ही इस जंगल में से दूर भाग जाओ, क्यों कि आटोप सहित क्रोप से स्फुरायमान केशराओंवाला यहां पर केशरीसिंह आ रहा * है। मेरे भाग्य से ही यह वादी यहां आ पहुंचा है अतः सचमुच ही मैं आज उसकी जीभ की खुजली दूर करूंगा । लक्षणशास्त्र में तो मेरी दक्षता है ही, साहित्य शास्त्र में भी मेरी बुद्धि तीक्ष्ण है, तर्कशास्त्र में तो मैंने निपुणता ग्र प्राप्त की है । इस लिए वह शास्त्र ही कौनसा है जिसमें मैंने परिश्रम नहीं किया । पंडितों के लिए कौनसा रस . अपोषित है? चक्रवर्ती के लिए क्या अजेय है ? वज के लिए क्या अभेद्य है ? महात्माओं के लिए क्या 0 - असाध्य है ? भूखों के लिए क्या अखाद्य है ? खल मनुष्यों के लिए कौनसा वचन अवाच्य है ? कल्पवृक्ष के लिए न देने लायक क्या है ? वैरागी के लिए क्या त्याज्य है ? इसी प्रकार तीन लोक को जीतनेवाले तथा महापराक्रमी LE ऐसे मेरे लिए विश्व में क्या अजेय है ? अतः अभी जाकर उसे जीत लेता हूं । इत्यादि विचारों में इंद्रभूति समवसरण के दरवाजे पर आ पहुंचा । प्रथम पगलिये पर ठहर कर प्रभु को देख इंद्रभूति विचार में पड़ गया कि-क्या यह ब्रह्मा, विष्णु, या सदाशिव शंकर है ? नहीं सो नहीं है, क्यों कि ब्रह्मा तो वृद्ध है, विष्णु श्याम है, और शंकर पार्वती सहित हे। For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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