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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 680 कालिदास पर्याय कोश निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः सन्निपत्य स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु। पू० मे० 30 रास्ते में उस निर्विन्ध्या नदी का भी रस ले लेना....,क्योंकि स्त्रियाँ चटक-मटक दिखाकर ही अपने प्रेमियों को अपने प्रेम की बात कह देती हैं। यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिमङ्गानुकूलः शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः। पू० मे० 33 जहाँ शिप्रा का वायु चतुर प्रेमी की तरह स्त्रियों की संभोग की थकावट को दूर कर रहा होगा। यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येत्य हर्म्यस्थलानि । ज्योतिश्छाया कुसुमरचितान्युत्तमस्त्रीसहायाः। उ० मे० 5 वहाँ के यक्ष अपनी अलबेली स्त्रियों को लेकर स्फटिक मणि से बने हुए अपने उन भवनों पर बैठते हैं, जिनकी गच पर चढ़ी हुई तारों की छाया ऐसी जान पड़ती है, मानो फूल टैंके हुए हैं। यत्र स्त्रीणां प्रियतम भुजालिङ्गनोच्छवासितानां अङ्गानि सुरतजनितां तन्तुजालवलम्बाः। उ० मे०१ झालरों में लटके हुए मणियों से टपकता हुआ जल उन स्त्रियों की थकावट दूर करता है, जिनके शरीर प्रियतम की भुजाओं में कसे रहने से ढीले पड़ जाते हैं। कान्ति 1. कान्ति - [कम् + क्तिन्] मनोहरता, सौंदर्य, चमक, प्रभा, दीप्ति । येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते बढेणेव स्फुरितरुचिनागोपवेषस्य विष्णोः। पू० मे0 15 सजा हुआ तुम्हारा साँवला शरीर ऐसा सुन्दर लगने लगा है जैसे मोरमुकुट पहने हुए ग्वाले का वेष बनाए हुए श्रीकृष्णजी आकर खड़े हो गए हों। स्वल्पीभूतेसुचरितफलेस्वर्गिणांगागतानां शेषैःपुण्यैर्हतमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्। पू० मे० 32 मानो स्वर्ग में अपने पुण्यों का फल भोगने वाले पुण्यात्मा लोग, पुण्य समाप्त For Private And Personal Use Only
SR No.020427
Book TitleKalidas Paryay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTribhuvannath Shukl
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2008
Total Pages441
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size15 MB
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