SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 300 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश अवोचदेनं गगनस्पृशा रघुः स्वरेण धीरेण निवर्तयन्निव । 3/43 बस रघु ने समझ लिया कि हो न हो ये इन्द्र ही हैं और ऊँचे गंभीर स्वर से इस प्रकार इन्द्र से बोले, मानो उन्हें लौटने को ललकार रहे हों । इति प्रगल्भं रघुणा समीरितं वचो निशम्याधिपतिर्दिवौकसाम् । 3/47 के अभिमान भरे इन वचनों को सुनकर इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ । रघुः शशांकार्धमुखेन पत्रिणा शरासन ज्यामलुनाद्विडौजसः । 3/59 तब रघु ने अर्द्ध चन्द्र के आकार के बाण से इन्द्र की ठीक कलाई के पास धनुष की वह डोरी काट डाली। रघु रघुर्भृशं वक्षसि तेन ताडितः पपात भूमौ सह सैनिकाश्रुभिः । 3/61 उस वज्र की मार से रघु पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके गिरते ही उनके सैनिकों ने रोना पीटना आरंभ कर दिया। वार्षिकं संजहारेन्द्रो धनुजैत्रं रघुर्दधौ । 4/16 इन्द्र ने जब अपना वर्षा ऋतु वाला इन्द्रधनुष हटाया, तब रघु ने अपना विजयी धनुष हाथ में उठा लिया । रघोरभिभवावशंकि चुक्षुभे द्विषतां मनः । 4/21 उधर शत्रुओं के मन में यह जानकर खलबली मच गई कि अब न जाने कब रघु चढ़ाई कर बैठे। आपादपद्मप्रणाताः कलमा इव ते रघुम् । 4/37 वैसे ही रघु ने उन राजाओं को फिर राज पर बैठा दिया, जो उनके पैरों पर आकर गिर पड़े थे। तस्यामेव रघोः पाण्ड्याः प्रतापं न विषेहिरे । 4/49 पर रघु का तेज इतना प्रबल था कि वहाँ के पाँड्य राजा भी इनके आगे न ठहर सके। For Private And Personal Use Only उपरान्त महीपाल व्याजेन रघवे करम् । 4/58 पश्चिम के राजाओं ने जो रघु के अधीन होकर उन्हें कर दिया था वह मानो । ततः प्रतस्थे कौवेरीं भास्वानिव रघुर्दिशम् । 4/66 जैसे सूर्य उत्तर की ओर घूम जाता है, वैसे ही रघु भी उत्तर के राजाओं को जीतने के लिए उधर घूम पड़े। कपोल पाटला देशि बभूव रघुचेष्टितम् । 4/68
SR No.020426
Book TitleKalidas Paryay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTribhuvannath Shukl
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2008
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy