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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 299 रघुवंश दिनकराभिमुखा रणरेणवो रुरुधिरे रुधिरेण सुरद्विषाम्। 9/23 सूर्य पर छाई हुई युद्ध की धूल राक्षसों के रक्त से सींच-सींचकर दबाई है। प्रणिपत्य सुरास्तस्मै शमयित्रे सुरद्विषाम्। 10/15 तब देवताओं ने दैत्यों के नाश करने वाले विष्णु भगवान् को प्रणाम किया। सा बाणवर्षिणं रामं योधयित्वा सुरद्विषाम्। 12/50 बाण बरसाने वाले राम से लड़कर वह राक्षसों की सेना। यत्रोत्पलदलक्लैव्यमस्त्राण्यापुः सुरद्विषाम्। 12/86 जिस पर राक्षसों के अस्त्र ऐसे लगते थे, मानो वे कमल के फूल हों। राघवो रथमप्राप्तां तामाशां च सुरद्विषाम्। 12/96 उस समय राक्षसों को पूरी आशा हो गई कि इस अस्त्र से राम अवश्य ही समाप्त हो जाएंगे, पर उस अस्त्र के राम के रथ तक पहुँचने के पहले ही। रघु दिलीपनंदन :-दिलीप पुत्र रघु। अतीन्द्रियेष्वप्युपपनदर्शनो बभूव भावेषु दिलीप नंदनः। 3/41 रघु को उन सब वस्तुओं को देख सकने की शक्ति आ गई, जो किसी भी इन्द्रिय से किसी को नहीं प्रकट होती। 2. दिलीपसूनु :-दिलीप पुत्र रघु। दिलीपसूनोः स बृहद्भुजान्तरं प्रविश्य भीमासुर शोणितोचितः। 3/54 बड़े-बड़े राक्षसों का रक्त पीने वाले उस बाण ने रघु की छाती में घुसकर, वहाँ का रक्त बड़े चाव से पिया। 3. रघु :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नंति :-लंघ् + कु, न लोपः लस्य र:] एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा, दिलीप का पुत्र। अवेक्ष्य धातोर्गमनार्थविच्चकार नाम्ना रघुमात्मसंभवम्। 3/21 अर्थ पहचानने वाले राजा ने धातु का 'जाना' अर्थ समझकर अपने पुत्र का नाम इसलिए रघु रखा कि। वपुः प्रकर्षादजयद्गुरुं रघुस्तथापि नीचैर्विनयाददृश्यत। 3/34 इस प्रकार डीलडौल बढ़ जााने के कारण रघु अपने बूढ़े पिता से ऊँचे और तगड़े लगते थे, फिर भी वे इतने नम्र थे कि उन्होंने कभी अपना बड़प्पन प्रकट नहीं होने दिया। For Private And Personal Use Only
SR No.020426
Book TitleKalidas Paryay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTribhuvannath Shukl
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2008
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size18 MB
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