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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २३ ] "तीन प्रकार के तिर्यञ्च कह चुके उनके प्रत्येक के दो दो भेद कहते हैं " सव्वे जल-थल - खयरा, संमुच्छिमा गब्भया दुहा हुंति । कम्माकम्मगभूमि, अंतरदीवा मणुस्सा य ॥२३॥ (स) सब (जलथलखयरा) जलचर, स्थलचर और खेचर (समुच्छिमा) सम्मूच्छिम, (गग्भया) गर्भज (दुहा) द्विधा - दो प्रकार के (हुति) होते हैं, (मगुस्सा ) मनुष्य (कम्माकम्मग भूमि) कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज (घ) और (अंतरदीवा) अन्तर्दीपवासी हैं ॥ २३ ॥ 1 भावार्थ- पहले तिर्यञ्च के तीन भेद कहे हैं: - जलचर, स्थलचर और खेचर; ये तीनों दो दो प्रकार हैं; समूच्छिम और गर्भज । जो जीव, मा-बाप के बिना ही पैदा होते हैं, वे समूर्चिकम कहलाते हैं। जो जोव, गर्भ से पैदा होते हैं वे गर्भज । मनुष्य के तीन भेद हैं कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्त निवासी । खेती, व्यापार आदि कर्म प्रधान भूमि को कर्मभूमि कहते हैं । उसमें पैदा होने वाले मनुष्य कर्मभूमि कहलाते हैं। कर्मभूमियां पन्दरह हैं, पांच भरत पांच ऐरावत और पांच महाविदेह | जहां खेती, व्यापार आदि कर्म नहीं होता उस भूमि को For Private And Personal Use Only
SR No.020410
Book TitleJivvichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Vrajlal Pandit
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1850
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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