SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९५ कहके अपणेठिकाणेंगई, तथा फेर अजमेरनगरमें पाक्षिक पडिक्कमण करते वक्त श्रीगुरुमहाराजने बेरवेरझवत्कारकरतीथकीवीजलीकों मंत्रबलकरके पात्रकेअधोभागमेंरक्खी, तब प्रतिक्रमण वाद पात्रकेनीचेसें निकाली, जब उसने कहा कि श्रीजिनदत्तनामग्रहण करणेसे में नहिं पडूंगी ऐसा वरदेके अपने ठिकानें गई, फेर एकदा गुरुमहाराजविहारकरते थके वृद्धनगर गए, उहां जिनमतकी उन्नतीकों नहिं सहता थका ब्राह्मण लोक जिनमंदिरमें मरी भई गऊकों डाल गए, उहां मरी गउकों देखके ब्राह्मणकहणे लगे, अहो जैनीयोंका देव गउ घातकहै, एसा वचन सुनकै खेदातुर भए, श्रावक लोक गुरुमहाराजसें वीनतीकरी तब गुरुमहाराज मंत्र बलें व्यंतर प्रयोग करके मरी भई गउकों अछी करी, तब गउ अपणी इच्छासें उठके शिवमंदिरमें शिवमूर्ति ऊपर आके पडगई, तब नगरमें ब्राह्मणको अत्यंत लज्जा उत्पन्न भई, तब लजित भये ब्राह्मण गुरुमहाराजके चरण कमलमें पडके ऐसा कहते भए, अहो स्वामिन् आप महं. तहो अब आप हमारा अपराध क्षमा करो आज पीछे इस नगरमें जो कोई आपकी परंपराके सूरि आवेंगें उनोंका प्रवेशउत्सव हम लोक करेगें आप कृपाकरके हम लोकोंको कोई नोकरीभोलावो, तब महाराजबोले मंदिरोंकीभक्ति करो, मंदिरोंमें पडिलेहणकरो, और चावल नैवद्य फल जो खाणेकी चीज चढे सो लिया करो तबसें वे ब्राह्मण मंदिरोंकी भक्तिकरने लगे, सो गंध्रपभोजक नामसें प्रसिद्धहुए उसवखतमें बहोतसी जैन धर्मकीप्रभावना भई तथा फेर एकदा गुरुमहाराज उच्चनगरमें गए, उहां प्रवेश For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy