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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Anh ५३४ बांकी कालप्रभावसें विशेषवृद्धिभइ, और इससमयभी तपागच्छकी तो विशेष प्रवृत्ति नहिं देखीजावेहै, किन्तु तपोटमतियांकी बा ऋषिमतियांकी विशेष प्रवृत्ति वा वृद्धि देखीजावेहै, यह कालहीका विशेषतासें प्रभाव समजाजावेहै, जिनाज्ञानुकूल शुद्ध प्ररूपक गच्छवासी मुनितो अल्पहिहै, अविच्छिन्नसम्प्रदाय तथा तपगछके शुद्ध प्ररूपक पुरुषोंके लिखित इतिहासादिकसें स्पष्ट मालूम होवेहै, कि तत्कालाश्रित तपागच्छवासीयोंके और देवसूर धर्मसागरा. श्रिततपोटमतियोंके वा ऋषिमतियोंके परस्पर प्ररूपणा, सिद्धान्तीय समाचारीमे वा आचरित समाचार्यादिकमें बहुतहि भेदहै इसके साक्षिक श्रीयशोविजयोपाध्यायसंग्रहीत धर्मसागराश्रित आगमविरुद्धअष्टोत्तरशतवोलसंग्रह १ खरतरतपाआगमाचरणाश्रित षष्टिबोलसंग्रह २ श्रीरनचन्द्रगणिसंग्रहीत कुमतिविषाहिजांगुलि ३ श्रीसोहम्मकुलरत्नपट्टावलिरास श्रीदीपविजयकविरचितहै ४ श्रीदर्शनविजयकविरचित श्रीविजयतिलकसरिरास ५ सागर विजयका विखवाद ६ उपाधिमतसज्झाय वगेरा अनेक ग्रन्थ इस. विषयके साखीहैं, और इसका तखार्थ ये है किश्रीविजयतिलक सूरिजीतत्पट्टे श्रीविजयआनन्दसूरिजीसें तपागच्छकी संप्रदाय चालुरहि, वर्तमानमे यह खास तपागच्छकी संप्रदायतो अल्पहि देखिजावेहै, और धर्मसागरका प्ररूपणादिक पक्षग्रहणकरणेंसें तथा गुर्वाज्ञा लोपणेसें, गच्छकी मर्यादा भंगकरणेंसें, श्रीधर्मसागराश्रित श्रीविज. यदेवसूरिसें, नवीन तपोटमत उत्पन्न भया, इसमतकी प्ररूपणादिक पहिले देखायाहिहै, इसमतके अनेक नामहै, तपोटमत, ऋषिमत उ For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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