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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३३ जब किसी गच्छवासीयोंने उनका संग्रह नहिं किया, तब सर्व गच्छमतवासीयोंके ऊपर विशेषतः नाराज होकर, खंडननिमित्त प्रच्छन्नपणे, प्रवचनपरीक्षा, अपरनाम कुपक्षकोशिकादित्य, कल्पकिरणावली, सर्वज्ञसिद्धिशतकादिक ग्रन्थ बनाये, और लिखवाकर प्रच्छन्नपणेरखे, और धीरेधीरे जीर्ण ग्रन्थोंकी भान्तिसें ज्ञान भंडारोमें प्रवेश करादिया तब तपगच्छनायक श्री विजयदानसरि आदिकनें उत्सूत्र निषेधकरणेके लिये सातबोल, नवबोल १२ बोल, १३ बोलादिक करके, सुस्थित गच्छमर्यादा करी, अर्थात् धर्मसागरादिकके बनाये हुवे ग्रन्थोंसें उद्धृतार्थ ग्रन्थोंकरके हमारे गच्छकी मर्यादा न बिगडे, समाचारी प्ररूपणा वगेरा स्थिति बरावर साक्षर प्रमाणसें बनीरहे, जिनाज्ञावत् सर्वगच्छोंके साथ संपवनारहै, कभी किसीके साथ विरोध या विरोधका बीज न उत्पन्न होवे, सरलता पूर्वक सदाकाल धर्म आराधाजावे, इसतरहकी दीर्घदृष्टिसें ऊपरकहे बोलोंका फरमाण किया, और इसतरहकी गच्छ व्यवस्था करके निश्चितभये, यह मर्यादा श्रीविजयसेनसरिजीतक खास करके रही, वादमें श्रीविजयसेनसूरिजीके पट्टधर शिष्य श्रीविजयदेवसूरिजीने निन्हवधर्मसागरजीका पक्ष ग्रहण किया, गुरुआज्ञालोपक भये, मामा भाणेजके संबन्धसें, तिसकारणसें एकहि तपागच्छके आणन्दसूर, देवमूर, सागर, वह तीन टूकडे होगये, और अव्यवस्थित प्ररूपणादिक गच्छमर्यादा भई और तपोटमतकी विशेष उत्पत्ति भई, वड, चित्रवाल तपागच्छका शुद्ध प्ररूपणादिक गच्छ मर्यादा आगमानुसार गुरुपरंपरायातमार्ग नष्टप्राय भया, और तपोटमति ३५ दत्तसूरि. For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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